PICS : ब्रह्मसम्बंध दीक्षा By Shree Vallabhacharya Yadunathji Mahodayaji to Dr.PRAVIN G.BHATIA-PURECHA, FOUNDER PRESIDENT OF BHATIA COMMUNITY MISSION FOUNDATION,(www.bhatiacommunity.org),DIRECTOR CUM DEAN OF ACADEMY OF UNIVERSAL GLOBAL PEACE USA,BOMBAY CHAPTER and ADMIN of VALLABH KUL BLOGS, at NAMAN TOWER HAVELI ,INDIA MUMBAI,KANDIVALI WEST,
Pushtimarg :: Diksha (initiation)
पुष्टिमार्ग सेवा का अधिकार ब्रह्मसम्बंध दीक्षा से मिलता है।
श्रीवल्लभाचार्य जी की सुनिश्चित मान्यता है कि जीवन का चरम-लक्ष्य भगवद् सेवा ही है। पुष्टिमार्ग सेवा का अधिकार ब्रह्मसम्बंध दीक्षा से मिलता है। पुष्टिमार्गीय में दो दीक्षाएँ होती है- पहली - नाम दीक्षा और ब्रह्मसम्बंध दीक्षा। नाम दीक्षा में शरण मंत्र ‘श्रीकृष्णः शरणंमम’ दिया गया है।
यह शिशु को भी दिया गया है। प्रत्येक स्त्री पुरूष यहां तक की पशु पक्षी भी इस मंत्र के अधिकारी है। स्वयं श्री वल्लभाचार्य जी अपने ''नवरत्न'' नामक ग्रन्थ में सतत् सर्वात्मभाव से इस शरणमंत्र को जपने की आज्ञा दी है। शरण मंत्र का अवान्तर फल है। चित्त की शुद्धि और आसुर भाव की निवृति। इसका मुख्य फल है अधिकार और निवेदन मंत्र की योग्यता की प्राप्ति। जिस प्रकार बीज बोने से पूर्व खेत तैयार करना पड़ता है तभी बीज फलित होता है, उसी प्रकार ब्रह्मसम्बन्ध के पूर्व शरण-मंत्र लेना अनिवार्य है।
शरण-मंत्र का सम्बंध भगवान् के उस स्वरूप से है, जो भक्तों के बहिर्दर्शनार्थ आविर्भूत होता है, उसी का स्मरण करने के लिए इस मंत्र में श्री शब्द है। शरणमंत्र से व्यक्ति को वैष्णवत्व मिलता है, यह वैष्णवत्व भक्ति मार्ग का सिंहद्वार है।
शरणमंत्र भावना :- शरण मंत्र ग्रहण करने के बाद वैष्णव को यह भावना करनी चाहिए कि इस लोक और परलोक संबंधी हर विषय में श्री हरिः ही सर्वथा, सब प्रकार से हमारे शरण स्थल है, आश्रय है। दुःख आ पडे़, कोई पाप, कर्म बन पडे़ , भय की स्थिति में कामनाएं अपूर्ण रहने पर, भक्त के प्रति अपराध हो जाने पर, भक्त द्वारा अपना अपमान होने पर, भक्ति में मन न लगने पर, अंहकार की भावना उत्पन्न होने पर, अपने पोष्य वर्ग के पोषण की दृष्टि से, स्त्री-पुत्र शिष्य आदि के द्वारा अपमान होने अर्थात् हर स्थिति में भगवान् श्रीकृष्ण के प्रति शरण-भावना बनाए रखना चाहिए। चाहे सहज, सुशक्य कार्य कर रहे हों अथवा अशक्य, अत्यधिक कठिन और असंभव दायित्व उठाना पडे़ दोनो ही स्थितियों में भगवान् की सामर्थ्य पर विश्वास रखें। शरण भावना से देह, इंद्रिया आदि द्वारा लौकिक कार्यो में प्रवृति होने पर भी उनके प्राकृतांश की निवृति हो जाती है। धीर-धीरे उनमें अलौकिकता आ जाती है। लेकिन शरण भावना और भगवत् सेवा से अलौकिक मन की सिद्धि होने पर भी उसे भगवद् कृपा ही माने और सर्वार्थ सिद्धि में भी चित्त में श्री हरि की शरण भावना बनाएं रखे और निरन्तर शरण मंत्र बोलता रहे। अविश्वास कदापि न करें क्योंकि अविश्वासशरण भावना तथा भगवत प्राप्ति में बाधक है। श्री हरी के अतिरिक्त मन अन्यत्र कहीं जाना या अन्य से प्रार्थना करना भी सर्वथा छोड़ देना चाहिए इस कारण शरण भावना से भगवान् श्रीकृष्ण को ही एक मात्र आश्रय बना लेने से ही जीव का कल्याण हो सकता है। यह श्री मद् वल्लभाचार्य का मत है।
मुख्य दीक्षाः ब्रह्मसंबंध नाम दीक्षा के बाद ब्रह्मसंबंध की पात्रता होती है। यह दीक्षा अत्यन्त महत्त्वपूर्ण मानी जाती है, अतः इसका सैद्धान्तिक स्वरूप भी जान लेना आवश्यक है। भगवान के विद्-अंश जीव के ऐश्वर्यादिक भगवद् 'धर्म, धर्म अविद्या से उत्पन्न अहंताममता मूलक अहंकार के कारण तिरोहित हो जाते है, वह विषयासक्त हो जाता है। जीवों की उत्पति भगवान् की सेवा के लिए हुई है और जगत् की सार्थकता भगवत् सेवा में विनियोग से ही है। किन्तु जीव संसारगत अहंता ममतात्मक माया के प्रभाव से स्वयं को कर्ता, भोक्ता और जगत के पदार्थो को अपने स्वामित्व की वस्तुएँ मान लेता है। इस भगवत् विरोधी मान्यता से वह बन्धन में पड़ता है और दूषित होता है।
अतः श्री मद्वल्लभाचार्यजी ने उसे स्वाभाव दुष्ट, स्वभाव से दोषयुक्त कहा है। जीव की आत्मा शूद्र है। किन्तु जीव स्वभावतः दुष्ट है। भगवान अनवद्य, पूर्णत निर्दोष है, ये दोषरहित व्यक्ति और वस्तुओ को ही स्वीकार करते है। शुद्ध जीव ही भगवद् सेवा का अधिकारी है क्योंकि सदोष जीव को भगवान कैसे अंगीकार करें। यही समस्या, महाप्रभु श्रीमद्वल्लभाचार्यजी के सामने थी स्वयं भगवान ने ही सुलझा दिया। ब्रह्मसंबंध से देह और जीवों के सहज, देशज, कालज, संयोगज, स्पर्शज आदि सभी दोषों की निवृति होती है।
ब्रह्मसंबंध अर्थात भगवान श्रीकृष्ण के प्रति आत्मनिवेदन करना चाहिए।
ब्रह्मसंबंध दीक्षा के समय गुरू की आज्ञा प्राप्त कर जीव स्नान आदि से शु़द्ध होकर दीक्षा के लिए गुरू के पास पहुँचता है। गुरू की आज्ञानुसार वह तुलसी पत्र हाथ में लेकर गुरू द्वारा बोले गए मंत्र को दोहराता है, फिर आचार्य के द्वारा ही प्रभु के चरणारविन्द में तुलसी समर्पित करता है। इस दीक्षा से इस दीक्षा के व्यक्ति भगवान श्रीकृष्ण की पुष्टिमार्गीय सेवा का अधिकारी बनता है। ब्रह्मसम्बंध का मंत्र गद्य में है, जिसका भावार्थ इस प्रकार है- ''असंख्य वर्षो से हुए प्रभु श्रीकृष्ण के विरह से उत्पन्न ताप, क्लेश, आनंद का जिसमें तिरोभाव हो गया है, ऐसा मै अपना शरीर, इन्द्रियाँ, प्राण और अन्त करण तथा उनके धर्म, स्त्री, धर, पुत्र, सगे, सम्बंधी, धन, इहलोक, परलोक सब कुछ आत्मा सहित भगवान श्रीकृष्ण आपको समर्पित करता हूँ। मै दास हूँ। मै आपका ही हूँ। इस प्रकार आत्म निवेदन के द्वारा भगवान को स्वामी और स्वयं को उनका दास बना लेता है अपना सर्वस्व अर्पण कर देता है। इस सर्वसमर्पण से वह भगवान के साथ तदीयता सम्पादित करता है।
ब्रह्मसंबंध में ब्रह्म के साथ स्थायी और कभी न छूटने वाला सुदश्ढ़ सम्बंध स्थापित हो जाता है। आत्म निवेदन से ही महद् विमश्ग्य प्रेम लक्षणा, फल रूपा भक्ति सिद्ध होती है।
ब्रह्मसंबंध के बाद लौकिक या वैदिक कार्यो के लिए जिस वस्तु की आवश्यकता हो, उस वस्तु को आरम्य से ही भगवान को समर्पित किया जाय। ब्रह्मसम्बंध वाले व्यक्ति के लिए असमर्पित वस्तु का संसर्ग सर्वथा निषिद्ध है। पुष्टिमार्ग में दीक्षित होने पर जीव कश्तार्थ हो जाता है। प्रत्येक वस्तु का समपर्ण पहले प्रभु के लिए किया जाता है। बाद में प्रसादी के रूप में अपने लिए होता है। सदा सर्वथा भगवान का स्मरण करते रहे। ''तस्माद् सर्वात्मना नित्यं श्रीकश्ष्णः शरण मम'' पुष्टिमार्गीय उत्सवों का स्वरूप प्रकार उत्सव का तात्पर्य महाप्रभु श्रीमद् वल्लभाचार्य जी ने श्रीमद्भागवत की सुबोधिनी टीका में वर्णित किया है ''उत्सवें ननाम मनसः सर्व विस्मारक आल्हाद उत्सव साम्पादनाथ सजातीयान् एव रसोत्पादनाथ विशेषमाह।
अपने तनमन को भुलाकर हर्षोल्लास पूरित भाव से अपने सजातीय के संग जो रसाप्लावित होकर जो भाव, प्रेम उत्पन्न होता उसे उत्सव कहा जाता है।
उत्सवों का आयोजन प्रथम वैदिक काल में विध्नों, मनोभिललित कामनाओं की पूर्ति के लिए देवपूजन के रूप यज्ञानुष्ठान के रूप में आयोजित हुआ था।
पुष्टिमार्ग के प्रणेता आचार्य चरण श्रीमहाप्रभुजी ने इसी उत्सव की परिपूर्ण भावना को आधार मानकर पुष्टिमार्ग में प्रभु के साथ आनंदानुभूति का सुख जो गोपियों को प्राप्त हुआ था उसी की अनुभूति के लिए उत्सवों को प्रणयन किया तथा घोर कलिकाल की साम्प्रदायिक विषमताओं से एवं लौकिक चिन्ताओं से जीव को छुटकारा मिले ऐसी स्थिति का तत्कालीन वातावरण में फैले हुए दुष्प्रभाव को दूर करने के लिए व मन को लोकासक्ति से हटाने के लिए जीव को प्रभु के सम्मुख वेदादि शास्त्र सम्मत स्वरूपों में उत्सवों का क्रम प्रचलित किया था। उत्सवों की भावभूमि विशद्रूप श्री वल्लभाचार्य के समय अधिक नहीं हुआ था किन्तु आपके द्वितीय पुत्र श्री गुसाईं विट्ठलनाथ जी ने उत्सवों तथा महोत्सवों को विराटरूप में भव्य व दिव्य रूप से मनाने का क्रम निश्चित किया।
महाप्रभु वल्लभाचार्य ने सेवा के दो प्रकार निर्देशित किये है- नित्योत्सव एवं वर्षोत्सव। नित्योत्सव के सेवा विधान में भोग, राग और श्रृंगार सेवा की इन तीनों विद्याओं का ऐसा सुन्दर स्वरूप निर्धारित किया गया है कि प्रत्येक तिथि और वार जो रितु अनुसार, नित नवीन राग कीर्तन सेवा में गाये जाय।
वर्षोत्सव में वर्ष भर में होने वाली सभी महत्त्वपूर्ण लोक जीवन के मेले त्यौहार उत्सवों को समाहित किया गया है। वर्षोत्सव के अधिकांश उत्सवों श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं एवं लोकपर्वों से सम्बंधित है। महाप्रभु श्रीमद् वल्लभाचार्य जी द्वारा स्थापित और गुसाई श्री विट्ठलनाथजी द्वारा सज्जित की गई पुष्टि मार्ग की यह पुष्ट सेवा प्रणाली गोवर्द्धन पर्वत पर श्रीनाथजी के मन्दिर में प्रारम्भ की गई थी।
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