नाथद्वारा में वैष्णव किसलिए आता है?
सोलहवीं सदी के उस प्रारंभिक काल से लेकर, जबकि महाप्रभु वल्लभाचार्य ने श्रीनाथजी के स्वरूप को जतीपुरा (ब्रजस्थित गिरिराज गोवर्ध्दन क्षेत्र) में प्रतिष्ठित किया, सत्रहवीं सदी के अंतिम भाग तक पुष्टिमार्ग के अनुयायी उस स्वरूप के दर्शन और सेवा के लिए ब्रज की ही यात्रा करते रहे होंगे। वहां जाकर श्रीनाथजी के दर्शन और सेवा करना उन्हें उसी तरह अपना आवश्यक पारिवारिक दायित्व लगता होगा जिस तरह विवाह, पुत्र जन्म आदि कुछ महत्वपूर्ण अवसरों पर किसी वंश विशेष के सदस्यों को आज भी अपने परिवार की कुशलता, वंश-वृध्दि व समृध्दि के लिए पूर्वजों द्वारा निर्धारित किसी विशिष्ट देवस्थान पर जा कर सेवा-पूजा करना आवश्यक लगता है।
किन्तु जब सन् 1672 में औरंगजेब की धार्मिक ज्यादतियों के कारण श्रीकृष्ण के इस बाल-स्वरूप को श्री वल्लभाचार्य के वंशज नाथद्वारा ले आये तब पुष्टिमार्ग के इन अनुयायियों को (जिनमें अधिकांशत: गुजरात के थे) श्रीनाथजी की सेवा हेतु ब्रज के बजाय नाथद्वारा की यात्रा करना आवश्यक लगने लगा होगा।
श्रीनाथजी और उनके सेवकों के नाथद्वारा आगमन से मेवाड़ के इस क्षेत्र में पुष्टिमार्ग और ब्रज से जुड़ी एक दूसरी संस्कृति का भी प्रवेश हुआ जिसकी अपनी निजी विशिष्टताएं थीं। गोस्वामी विट्ठलनाथजी प्रणीत श्रीनाथजी की विशिष्ट सेवा-पध्दति के कारण श्रीनाथजी मंदिर का भीतरी परिवेश भी शुरू से ही कुछ खास तरह का रहा। जैसा कि सब जानते हैं, नाथद्वारा मन्दिर में श्रीनाथजी की सेवा उन्हें श्रीकृष्ण का एक सप्तवर्षीय, कालातीत व जीवंत स्वरूप मान कर की जाती है। प्रात:कालीन जागरण से लेकर रात्रिकालीन शयन पर्यन्त श्रीनाथजी की यह सेवा उनके सेवकों से अबाध नियमितता तथा अत्यंत शुध्दता और सावधानी की अपेक्षा रखती है। मंदिर के सेवादारों के रूप में लगभग 500 कर्मचारियों का एक अमला श्रीनाथजी की इस अबाध सेवा के काम में आज भी निरंतर जुटा रहता है।
श्रीनाथजी की सेवा उनके निजी सेवकों से न केवल सावधानीपूर्ण, नियमित और अनुशासित शारीरिक श्रम की अपेक्षा रखती है, इसे श्रध्दा, समर्पण, भक्ति व आत्मीय प्रेम के भाव के बिना भी ठीक से अन्जाम नहीं दिया जा सकता। वस्तुत: श्रीनाथजी मंदिर का विशिष्ट भावनात्मक अनुभव उसी वैष्णव के लिए संभव है जो अपनी सामान्य तर्क बुध्दि को मंदिर के बाहर ही छोड़ कर उसमें प्रवेश करे। यह बात ठीक से समझी जानी चाहिए कि सामान्य तर्क बुध्दि एवं श्रध्दाविहीनता के साथ इसमें जाने वाले व्यक्ति के लिए यह मंदिर भले ही महज एक अजायबघर हो, किन्तु श्रध्दा व भक्तिभाव के साथ इसमें प्रवेश करने वाले वैष्णव के लिए आज भी यह मंदिर लौकिक व भौतिक के माध्यम से ईश्वर भक्ति के एक असाधारण, अलौकिक व दिव्यभावपूर्ण सौन्दर्यात्मक अनुभव का द्वार साबित होता है।
आज भी श्रीनाथजी की सेवा वैष्णव से न केवल श्रध्दा विश्वास बल्कि आत्मानुशासन, विनय, इन्द्रियनिग्रह और शारीरिक कष्टों के प्रति सहनशीलता की मांग करती है। मंदिर में सेवा के लिए आए श्रध्दालु पुष्टिमार्गीय वैष्णव का सामान्य भाव यह रहता है कि उसे चाहे जितना श्रम करना पड़े या चाहे जितना शारीरिक कष्ट उठाना पड़े, उसके कारण श्रीनाथजी के सुख में लेशमात्र भी कमी नहीं आनी चाहिए। पुष्टिमार्ग उसके अनुयायी से मांग करता है कि वह अपनी सर्वाधिक प्रिय व मूल्यवान वस्तु भी श्रीनाथजी को समर्पित करने को तैयार रहे।
जहां वैष्णवों के द्वारा श्रीनाथजी की प्रसन्नता के लिए की जाने वाली भक्तिपूर्ण सेवा उनमें स्वयं में विनय, अहंकार-मुक्ति, अपरिग्रह, आत्म-निवेदन आदि गुणों का विकास कर उन्हें आत्मिक उन्नति के मार्ग पर अग्रसर होने में मदद करती है वहीं वह श्रीनाथजी मंदिर के वातावरण को भी अधिकाधिक आकर्षक, सौन्दर्यमय व उत्सवपूर्ण बनाती है। यह सेवा श्रीनाथजी के सेवकों की सृजनात्मक व कलात्मक प्रतिभा व कुशलता को भी अभिव्यक्ति का अवसर देती है। कल्पनाशील वैष्णवों के द्वारा फूलघर की सेवा, कुशल रसोइयों द्वारा रसोईघर की सेवा, भावप्रवण संगीतज्ञों द्वारा श्रीनाथजी की संगीत सेवा और कला प्रवीण चित्रकारों की कला सेवा ने न केवल नाथद्वारा मंदिर परिसर को विशिष्ट व आकर्षक बनाया है बल्कि इसने समूचे नाथद्वारा नगर को सांस्कृतिक संपन्नता प्रदान की है।
अतीत में नाथद्वारा के गोस्वामी पद पर आसीन कुछ गुणी, विद्वान व विचारशील वल्लभकुल वंशजों ने नाथद्वारा के सांस्कृतिक वातावरण को समृध्द बनाने के लिए अपनी ओर से भी अनेक प्रयत्न किए। नाथद्वारा मंदिर व नगर को और अधिक सुन्दर व आकर्षक बनाने की चेष्टा की। उदाहरणार्थ गोस्वामी गोवर्ध्दनलालजी के समय में गणगौर से जुड़े स्थानीय संस्कृति के जिन तत्वों का मंदिर की उत्सव परंपरा में समावेश हुआ उनसे यह संस्कृति निश्चय ही अधिक समृध्द हुई।
राज्य व्यवस्था के परिवर्तन एवं आधुनिकीकरण के कारण श्रीनाथजी मंदिर और नाथद्वारा के प्रशासनिक तंत्र में आज काफी बदलाव आ गया है। यह निर्विवाद है कि जैसे-जैसे श्रीनाथजी मंदिर की आर्थिक समृध्दि में वृध्दि होती है वैसे-वैसे इस मंदिर व इस नगर के सौन्दर्य और इसकी सांस्कृतिक समृध्दि में भी वृध्दि होनी चाहिए। किन्तु आज के संदर्भ में यह काम उन विद्वान विशेषज्ञों की सहायता से ही संभव है जो न केवल नाथद्वारा की परंपरागत संस्कृति का गहराई से अध्ययन करने और उसका ठीक से निरूपण करने में समर्थ हों बल्कि जो आज के समय में भी बगैर उस संस्कृति के मूल स्वरूप में कोई विकृति लाए उसके विकास के मार्ग को ठीक से निर्धारित करने की क्षमता रखते हों।
नाथद्वारा के विकास का मूल लक्ष्य नाथद्वारा आने वाले व्यक्ति के लिए उसकी यात्रा को पहले की तुलना में एक समृध्दतर सांस्कृतिक, आध्यात्मिक व आत्मिक अनुभव बनाना होना चाहिए। नाथद्वारा यात्रा के परिणाम स्वरूप कोई वैष्णव आज भी यदि आत्मिक उन्नति के मार्ग पर आगे बढ़ने में समर्थ हो, यदि उसके कारण श्रीनाथजी के प्रति उसकी सेवा व भक्ति का भाव अधिक पुष्ट हो और यदि इस यात्रा द्वारा उसका सौन्दर्यबोध और अधिक परिष्कृत हो तभी नाथद्वारा के विकास की दिशा को उसकी सांस्कृतिक परंपरा के अनुरूप कहा जा सकेगा।
नाथद्वारा निश्चय ही उन सप्ताहान्तकों का प्रमोद स्थल नहीं है जहां वे सप्ताह के अन्त में अपनी व्यस्तता से उत्पन्न थकावट व ऊब दूर करने के लिए जाते हों और जहां की यात्रा से तरोतांजा हो कर वे फिर से अपने दुनियादारी के कामों में लग जाना चाहते हों। आज की उपभोक्ता संस्कृति की गिरफ्त में जकड़े तथा उसी के मूल्योें से परिचालित किसी भी व्यक्ति के लिए उस आत्मिक-आध्यात्मिक अनुभव तथा उस सांस्कृतिक सौन्दर्य का आनन्द ले पाना असंभव हैजिसे उपलब्ध करवाने की क्षमता नाथद्वारा व उसके मंदिर में प्रारंभ से रही है। वे लोग जो आज की उपभोक्तावादी दुनिया के आनन्द के लिए नाथद्वारा आते हैं सच्चे अर्थों में वैष्णव कहे भी नहीं जा सकते। नाथद्वारा किसी हल्के-फुल्के भौतिक मनोरंजन के लिए निर्मित रामोजी सिटी या डिज्नीलैंड नहीं है, और न ही उसे उस रूप में ढालने की कोई भी चेष्टा धार्मिक व सांस्कृतिक दृष्टि से उचित कही जा सकती है।
वर्तमान राजनीतिक, प्रशासनिक व सामाजिक परिस्थितियों में नाथद्वारा के विशिष्ट सांस्कृतिक पर्यावरण को उपयुक्त संरक्षण की जबरदस्त जरूरत है। वर्तमान उपयोगितावादी सोच ने यहां की संस्कृति के पारंपरिक स्वरूप में अब तक काफी कुछ विकृति ला दी है। सार्वभौमीकरण की आज की औपनिवेशिक ताकतें नाथद्वारा नगर और श्रीनाथजी मंदिर में बहुत भीतर तक प्रवेश नहीं करने पाएें इस बात की भरपूर चेष्टा की जानी चाहिए। यदि पर्याप्त श्रध्दा व भक्ति के अभाव में वे तमाम सांस्कृतिक तत्व पूरी तरह नष्ट हो जाते हैं जो कि नाथद्वारा मंदिर व नाथद्वारा नगर को आरंभ से ही एक विशिष्ट अलौकिकता प्रदान करते रहे हैं तो पुष्टिमार्ग के अनुयायी वैष्णवभक्तों के लिए संभवत: इस नगर में कोई आकर्षण ही नहीं बच रहेगा।
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