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Sunday, February 6, 2011

श्रीमद्भगवद्गीता अठारहँवा अध्याय


श्रीमद्भगवद्गीता अठारहँवा अध्याय....
   
अर्जुन बोले:
संन्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम्। त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन॥१८- १॥
हे महाबाहो, हे हृषीकेश, हे केशिनिषूदन, मैं संन्यास और त्याग (कर्म योग) के सार को अलग अलग जानना चाहता हूँ।

श्री भगवान बोले:
  

काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदुः। सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः॥१८- २॥
बुद्धिमान ज्ञानी जन कामनाओं से उत्पन्न हुये कर्मों के त्याग को सन्यास समझते हैं और सभी कर्मों के फलों के त्याग को बुद्धिमान लोग त्याग (कर्म योग) कहते हैं।
त्याज्यं दोषवदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिणः। यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यमिति चापरे॥१८- ३॥
कुछ मुनि जन कहते हैं की सभी कर्म दोषमयी होने के कारण त्यागने योग्य हैं। दूसरे कहते हैं की यज्ञ, दान और तप कर्मों का त्याग नहीं करना चाहिये।
निश्चयं शृणु मे तत्र त्यागे भरतसत्तम। त्यागो हि पुरुषव्याघ्र त्रिविधः संप्रकीर्तितः॥१८- ४॥
कर्मों के त्याग के विषय में तुम मेरा निश्चय सुनो हे भरतसत्तम। हे पुरुषव्याघ्र, त्याग को तीन प्रकार का बताया गया है।
यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत्। यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्॥१८- ५॥
यज्ञ, दान और तप कर्मों का त्याग करना उचित नहीं है - इन्हें करना चाहिये। यज्ञ, दान और तप मुनियों को पवित्र करते हैं।
एतान्यपि तु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा फलानि च। कर्तव्यानीति मे पार्थ निश्चितं मतमुत्तमम्॥१८- ६॥
परन्तु ये कर्म (यज्ञ दान तप कर्म) भी संग त्याग कर तथा फल की इच्छा त्याग कर करने चाहिये, केवल अपना कर्तव्य जान कर। यह मेरा उत्तम निश्चय है।
नियतस्य तु संन्यासः कर्मणो नोपपद्यते। मोहात्तस्य परित्यागस्तामसः परिकीर्तितः॥१८- ७॥
नियत कर्म का त्याग करना उचित नहीं हैं। मोह के कारण कर्तव्य कर्म का त्याग करना तामसिक कहा जाता है।
दुःखमित्येव यत्कर्म कायक्लेशभयात्त्यजेत्। स कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत्॥१८- ८॥
शरीर को कष्ट देने के भय से कर्म को दुख मानते हुये उसे त्याग देने से मनुष्य को उस त्याग का फल प्राप्त नहीं होता। ऐसे त्याग को राजसिक त्याग कहा जाता है।
कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेऽर्जुन। सङ्गं त्यक्त्वा फलं चैव स त्यागः सात्त्विको मतः॥१८- ९॥
हे अर्जुन, जिस नियत कार्य को कर्तव्य समझ कर किया जाये, संग को त्याग कर तथा फल को मन से त्याग कर, ऐसे त्याग को सातविक माना जाता है।
न द्वेष्ट्यकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जते। त्यागी सत्त्वसमाविष्टो मेधावी छिन्नसंशयः॥१८- १०॥
जो मनुष्य न अकुशल कर्म से द्वेष करता है और न ही कुशल कर्म के प्रति खिचता है (अर्थात न लाभदायक फल की इच्छा करता है और न अलाभ के प्रति द्वेष करता है), ऐसा त्यागी मनुष्य सत्त्व में समाहित है, मेधावी (बुद्धिमान) है और संशय हीन है।
न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः। यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते॥१८- ११॥
देहधारीयों के लिये समस्त कर्मों का त्याग करना सम्भव नहीं है। परन्तु जो कर्मों के फलों का त्याग करता है, वही वास्तव में त्यागी है।
अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मणः फलम्। भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु संन्यासिनां क्वचित्॥१८- १२॥
कर्म का तीन प्रकार का फल हो सकता है - अनिष्ट (बुरा), इष्ट (अच्छा अथवा प्रिय) और मिला-जुला (दोनों)। जन्होंने कर्म के फलों का त्याग नहीं किया, उन्हें वे फल मृत्यु के पश्चात भी प्राप्त होते हैं, परन्तु उन्हें कभी नहीं जिन्होंने उन का त्याग कर दिया है।
पञ्चैतानि महाबाहो कारणानि निबोध मे। सांख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम्॥१८- १३॥
हे महाबाहो, सभी कर्मों के सिद्ध होने के पीछे पाँच कारण साँख्य सिद्धांत में बताये गये हैं। उनका तुम मुझ से ज्ञान लो।
अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम्। विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम्॥१८- १४॥
ये पाँच हैं - अधिष्ठान, कर्ता, विविध प्रकार के करण, विविध प्रकार की चेष्टायें तथा देव।
शरीरवाङ्‌मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः। न्याय्यं वा विपरीतं वा पञ्चैते तस्य हेतवः॥१८- १५॥
मनुष्य अपने शरीर, वाणी अथवा मन से जो भी कर्म का आरम्भ करता है, चाहे वह न्याय पूर्ण हो या उसके विपरीत, यह पाँच उस कर्म के हेतु (कारण) होते हैं।
तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः। पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मतिः॥१८- १६॥
जो मनुष्य अशुद्ध बुद्धि द्वारा केवल अपने आत्म को ही कर्ता देखता है (कर्म करने का एक मात्र कारण), वह दुर्मति सत्य नहीं देखता।
यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते। हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते॥१८- १७॥
जिस में यह भाव नहीं है की 'मैंने किया है' और जिस की बुद्धि लिपि नहीं है (शुद्ध है), वह इस संसार में (किसी जीव को) मार कर भी नहीं मारता और न ही (कर्म फल में) बँधता है।
ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना। करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः कर्मसंग्रहः॥१८- १८॥
ज्ञान, ज्ञेय (जाने जाने योग्य) औऱ परिज्ञाता - ये कर्म में प्रेरित करते हैं, और करण, कर्म और कर्ता - यह कर्म के संग्रह (निवास स्थान) हैं।
ज्ञानं कर्म च कर्ता च त्रिधैव गुणभेदतः। प्रोच्यते गुणसंख्याने यथावच्छृणु तान्यपि॥१८- १९॥
ज्ञान (कोई जानकारी), कर्म और कर्ता भी साँख्य सिद्धांत में गुणों के अनुसार तीन प्रकार के बताये गये हैं। उन का भी तुम मुझसे यथावत श्रवण करो।
सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते। अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम्॥१८- २०॥
जिस ज्ञान द्वारा मनुष्य सभी जीवों में एक ही अव्यय भाव (परमेश्वर) को देखता है, एक ही अविभक्त (जो बाँटा हुआ नहीं है) को विभिन्न विभिन्न रूपों में देखता है, उस ज्ञान को तुम सात्विक जानो।
पृथक्त्वेन तु यज्ज्ञानं नानाभावान्पृथग्विधान्। वेत्ति सर्वेषु भूतेषु तज्ज्ञानं विद्धि राजसम्॥१८- २१॥
जिस ज्ञान द्वारा मनुष्य सभी जीवों को अलग अलग विभिन्न प्रकार का देखता है, उस ज्ञान दृष्टि को तुम राजसिक जानो।
यत्तु कृत्स्नवदेकस्मिन्कार्ये सक्तमहैतुकम्। अतत्त्वार्थवदल्पं च तत्तामसमुदाहृतम्॥१८- २२॥
और जिस ज्ञान से मनुष्य एक ही व्यर्थ कार्य से जुड जाता है मानो वही सब कुछ हो, वह तत्वहीन, अल्प (छोटे) ज्ञान को तुम तामसिक जानो।
नियतं सङ्गरहितमरागद्वेषतः कृतम्। अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्त्विकमुच्यते॥१८- २३॥
जो कर्म नियत है (कर्तव्य है), उसे संग रहित और बिना राग द्वेष के किया गया है, जिसे फल की इच्छा नहीं रख कर किया गया है, उस कर्म को सात्विक कहा जाता है।
यत्तु कामेप्सुना कर्म साहंकारेण वा पुनः। क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम्॥१८- २४॥
जो कर्म बहुत परिश्रम से फल की कामना करते हुये किया गया है, अहंकार युक्त पुरुष द्वारा किया गया है, वह कर्म राजसिक है।
अनुबन्धं क्षयं हिंसामनवेक्ष्य च पौरुषम्। मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते॥१८- २५॥
जो कर्म सामर्थय का, परिणाम का, हानि और हिंसा का ध्यान न करते हुये मोह द्वारा आरम्भ किया गया है, जो कर्म तामसिक कहलाता है।
मुक्तसङ्गोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वितः। सिद्ध्यसिद्ध्योर्निर्विकारः कर्ता सात्त्विक उच्यते॥१८- २६॥
जो कर्ता संग मुक्त है, 'अहम' वादी नहीं है, धृति (स्थिरता) और उत्साह पूर्ण है, तथा कार्य के सिद्ध और न सिद्ध होने में एक सा है (अर्थात फल से जिसे कोई मतलब नहीं), ऐसे कर्ता को सात्विक कहा जाता है।
रागी कर्मफलप्रेप्सुर्लुब्धो हिंसात्मकोऽशुचिः। हर्षशोकान्वितः कर्ता राजसः परिकीर्तितः॥१८- २७॥
जो कर्ता रागी होता है, अपने किये काम के फल के प्रति इच्छा और लोभ रखता है, हिंसात्मक और अपवित्र वृत्ति वाला होता है, तथा (कर्म के सिद्ध होने या न होने पर) प्रसन्नता और शोक ग्रस्त होता है, उसे राजसिक कहा जाता है।
अयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः शठो नैष्कृतिकोऽलसः। विषादी दीर्घसूत्री च कर्ता तामस उच्यते॥१८- २८॥
जो कर्ता अयुक्त (कर्म भावना का न होना, सही चेतना न होना) हो, स्तब्ध हो, आलसी हो, विषादी तथा दीर्घ सूत्री हो (लम्बा खीचने वाला हो) (जिसकी कर्म न करने में ही रुची हो तथा आलस से भरा हो) - ऐसे कर्ता को तामसिक कहते हैं।
बुद्धेर्भेदं धृतेश्चैव गुणतस्त्रिविधं शृणु। प्रोच्यमानमशेषेण पृथक्त्वेन धनंजय॥१८- २९॥
हे धनंजय, अब तुम अशेष रूप से अलग अलग बुद्धि तथा धृति (स्थिरता) के भी तीनों गुणों के अनुसार जो भेद हैं, वे सुनो।
प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये। बन्धं मोक्षं च या वेत्ति बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी॥१८- ३०॥
प्रवृत्ति (किसी भी चीज़ या कर्म में लगना) और निवृत्ति (किसी भी चीज़ या कर्म से मानसिक छुटकारा पाना) क्या है (तथा किस चीज में प्रवृत्त होना चाहिये और किस से निवृत्त होना चाहिये), कार्य क्या है, और अकार्य (कार्य न करना) क्या है, भय क्या है और अभय क्या है, किस से बन्धन उत्पन्न होता है, और किस से मोक्ष उत्पन्न होता है - जो बुद्धि इन सब को जानती है (इनका भेद देखती है), हे पार्थ वह बुद्धि सात्त्विकहै।
यया धर्ममधर्मं च कार्यं चाकार्यमेव च। अयथावत्प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसी॥१८- ३१॥
हे पार्थ, जिस बुद्धि द्वारा मनुष्य अपने धर्म (कर्तव्य) और अधर्म को, तथा कार्य (जो करना चाहिये) और अकार्य को सार से नहीं जानता, वह बुद्धि राजसिक है।
अधर्मं धर्ममिति या मन्यते तमसावृता। सर्वार्थान्विपरीतांश्च बुद्धिः सा पार्थ तामसी॥१८- ३२॥
हे पार्थ, जिस बुद्धि से मनुष्य अधर्म को ही धर्म मानता है, अंधकार से ठकी जिस बुद्धि द्वारा मनुष्य सभी हितकारी गुणों अथवा कर्तव्यों को विपरीत ही देखता है, वह बुद्धि तामसिक है।
धृत्या यया धारयते मनःप्राणेन्द्रियक्रियाः। योगेनाव्यभिचारिण्या धृतिः सा पार्थ सात्त्विकी॥१८- ३३॥
हे पार्थ, जिस धृति (मानसिक स्थिरता) द्वारा मनुष्य अपने प्राण और इन्द्रियों की क्रियाओं को नियमित करता है, तथा उन्हें नित्य योग साधना में प्रविष्ट करता है, ऐसी धृति सातविक है।
यया तु धर्मकामार्थान्धृत्या धारयतेऽर्जुन। प्रसङ्गेन फलाकाङ्क्षी धृतिः सा पार्थ राजसी॥१८- ३४॥
हे अर्जुन, जब मनुष्य फलों की इच्छा रखते हुये, अपने (स्वार्थ हेतु) धर्म, इच्छा और धन की प्राप्ति के लिये कर्मों तथा चेष्टाओं में प्रवृत्त रहता है, वह धर्ति राजसिक है हे पार्थ।
यया स्वप्नं भयं शोकं विषादं मदमेव च। न विमुञ्चति दुर्मेधा धृतिः सा पार्थ तामसी॥१८- ३५॥
हे पार्थ, जिस दुर्बुद्धि भरी धृति के कारण मनुष्य स्वप्न (निद्रा), भय, शोक, विषाद, मद (मूर्खता) को नहीं त्यागता, वह तामसिक है।
सुखं त्विदानीं त्रिविधं शृणु मे भरतर्षभ। अभ्यासाद्रमते यत्र दुःखान्तं च निगच्छति॥१८- ३६॥ यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम्। तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम्॥१८- ३७॥
उसी प्रकार, हे भरतर्षभ, तुम मुझ से तीन प्रकार के सुख के विषय में भी सुनो। वह सुख जो (योग) अभ्यास द्वारा प्राप्त होता है, तथा जिस से मनुष्य को दुखों का अन्त प्राप्त होता है, जो शुरु में तो विष के समान प्रतीत होता है (प्रिय नहीं लगता), परन्तु उस का परिणाम अमृत समान होता है (प्रिय लगता है), उस स्वयं की बुद्धि की प्रसन्नता (सुख) से प्राप्त होने वाले सुख को सात्विक कहा जाता है।
विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम्। परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम्॥१८- ३८॥
जो सुख भावना विषयों की इन्द्रियों के संयोग से प्राप्त होती है (जैसी स्वादिष्ट भोजन आदि), जो शुरु में तो अमृत समान प्रतीत होता है, परन्तु उसका परिणाम विष जैसा होता है, उस सुख को तुम राजसिक जानो।
यदग्रे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मनः। निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम्॥१८- ३९॥
जो सुख शुरु में तथा अन्त में भी आत्मा को मोहित करता है, निद्रा, आलस्य और प्रमाद से उत्पन्न होने वाले ऐसी सुख भावना को तामसिक कहा जाता है।
न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुनः। सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभिः स्यात्त्रिभिर्गुणैः॥१८- ४०॥
ऐसा कोई भी जीव नहीं है, न इस पृथवि पर और न ही दिव्य लोक के देवताओं में, जो प्रकृति से उत्पन्न हुये इन तीन गुणों से मुक्त हो।
ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परन्तप। कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः॥१८- ४१॥
हे परन्तप, ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों और शूद्रों के कर्म उन के स्वभाव से उत्पन्न गुणों के अनुसार ही विभक्त किये गये हैं।
शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च। ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम्॥१८- ४२॥
मानसिक शान्ति, संयम, तपस्या, पवित्रता, शान्ति, सरलता, ज्ञान तथा अनुभव - यह सब ब्राह्मण के स्वभाव से ही उत्पन्न कर्म हैं।
शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्। दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्॥१८- ४३॥
शौर्य, तेज, स्थिरता, दक्षता, युद्ध में पीठ न दिखाना, दान, स्वामी भाव - यह सब एक क्षत्रीय के स्वभाविक कर्म हैं।
कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम्। परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम्॥१८- ४४॥
कृषि, गौ रक्षा, वाणिज्य - यह वैश्य के स्वभाव से उत्पन्न कर्म हैं। परिचर्य - यह शूद्र के स्वाभिक कर्म हैं।
स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः। स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु॥१८- ४५॥
अपने अपने (स्वभाव से उत्पन्न) कर्मों का पालन करते हुये मनुष्य सिद्धि (सफलता) को प्राप्त करता है। मनुष्य वह सिद्धि लाभ कैसे प्राप्त करता है - वह तुम सुनो।
यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्। स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः॥१८- ४६॥
जिन (परमात्मा) से यह सभी जीव प्रवृत्त हुये हैं (उत्पन्न हुये हैं), जिन से यह संपूर्ण संसार व्याप्त है, उन परमात्मा की अपने कर्म करने द्वारा अर्चना कर, मनुष्य सिद्धि को प्राप्त कर लेता है।
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्। स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्॥१८- ४७॥
दूसरे का गुण संपन्न धर्म के बराबर अपना धर्म (कर्तव्य, कर्म) ही श्रेय है (बेहतर है), भले ही उस में कोई गुण न हों, क्योंकि अपने स्वभाव द्वारा नियत कर्म करते हुये मनुष्य पाप प्राप्त नहीं करता।
सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्। सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः॥१८- ४८॥
हे कौन्तेय, अपने जन्म से उत्पन्न (स्वभाविक) कर्म को उसमें दोष होने पर भी नहीं त्यागना चाहिये, क्योंकि सभी आरम्भों में (कर्मों में) ही कोई न कोई दोष होता है, जैसे अग्नि धूँयें से ठकी होती है।
असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः। नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां संन्यासेनाधिगच्छति॥१८- ४९॥
हर जगह असक्त (संग रहित) बुद्धि मनुष्य जिसने अपने आप पर जीत पा ली है, हलचल (स्पृह) मुक्त है, ऐसा मनुष्य सन्यास (मन से इच्छा कर्मों के त्याग) द्वारा नैष्कर्म सिद्धि को प्राप्त होता है।
सिद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध मे। समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा॥१८- ५०॥
इस प्रकार सिद्धि प्राप्त किया मनुष्य किस प्रकार ब्रह्म को प्राप्त करता है, तथा उसके ज्ञान की क्या निष्ठा होती है वह तुम मुझ से संक्षेप में सुनो।
बुद्ध्या विशुद्ध्या युक्तो धृत्यात्मानं नियम्य च। शब्दादीन्विषयांस्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युदस्य च॥१८- ५१॥ विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानसः। ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रितः॥१८- ५२॥ अहंकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम्। विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते॥१८- ५३॥
पवित्र बुद्धि से युक्त, अपने आत्म को स्थिरता से नियमित कर, शब्द आदि विषयों को त्याग कर, तथा राग-द्वेष आदि को छोड कर, एकेले स्थान पर निवास करते हुये, नियमित आहार करते हुये, अपने शरीर, वाणी और मन को योग में प्रविष्ट करते हुये वह योगी नित्य ध्यान योग में लगा, वैराग्य पर आश्रित रहता है। तथा अहंकार, बल, घमन्ड, इच्छा, क्रोध और घर संपत्ति आदि को मन से त्याग कर, 'मैं' भाव से मुक्त हो शान्ति को प्राप्त करता है और ब्रह्म प्राप्ति का पात्र बनता है।
ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति। समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्॥१८- ५४॥
ब्रह्म के साथ एक हो जाने पर, वह प्रसन्न आत्मा, न शोक करता है न इच्छा करता है। सभी जीवों के प्रति एक सा हो कर, वह मेरी परम भक्ति प्राप्त करता है।
भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः। ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्॥१८- ५५॥
उस भक्ति द्वारा वह मुझे पूर्णत्या, जितना मैं हुँ, सार तक मुझे जान लेता है। और मुझे सार तक जान लेने पर मुझ में ही प्रवेश कर जाता है (मुझ में एक हो जाता है)।
सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रयः। मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम्॥१८- ५६॥
सभी कर्मों के सदा मेरा ही आश्रय लेकर करो। मेरी कृपा से तुम उस अव्यय शाश्वत पद को प्राप्त कर लोगे।
चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य मत्परः। बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव॥१८- ५७॥
सभी कर्मों को अपने चित्त से मुझ पर त्याग दो (उन के फलों को मुझ पर छोड दो, और कर्मों को मेरे हवाले करते केवल मेरे लिये करो)। सदी इसी बुद्धि योग का आश्रय लेते हुये, सदा मेरे ही चित्त वाले बनो।
मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि। अथ चेत्त्वमहंकारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि॥१८- ५८॥
मुझ में ही चित्त रख कर, तुम मेरी कृसा से सभी कठिनाईयों को पार कर जाओगे। परन्तु यदि तुम अहंकार वश मेरी आज्ञा नहीं सुनोगे तो विनाश को प्राप्त होगे।
यदहंकारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे। मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति॥१८- ५९॥
यदि तुम अहंकार वश (अहंकार का आश्रय लिये) यह मानते हो कि तुम युद्ध नहीं करोगे, तो तुम्हारा यह व्यवसाय (धारणा) मिथ्या है, क्योंकि तुम्हारी प्रकृति तुम्हें (युद्ध में) नियोजित कर देगी।
स्वभावजेन कौन्तेय निबद्धः स्वेन कर्मणा। कर्तुं नेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोऽपि तत्॥१८- ६०॥
हे कौन्तेय, सभी अपने स्वभाव के कारण अपने कर्मों से बंधे हुये हैं। जिसे तुम मोह के कारण नहीं करना चाहते, उसे तुम विवश होकर फिर भी करोगे।
ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति। भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया॥१८- ६१॥
हे अर्जुन, ईश्वर सभी प्राणियों के हृदय में विराजमान हैं और अपनी माया द्वारा सभी जीवों को भ्रमित कर रहे हैं, मानो वे (प्राणी) किसी यन्त्र पर बैठे हों।
तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत। तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्॥१८- ६२॥
उन्हीं की शरण में तुम संपूर्ण भावना से जाओ, हे भारत। उन्हीं की कृपा से तुम्हें परम शान्ति और शाश्वत स्थान प्राप्त होगा।
इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्‌गुह्यतरं मया। विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु॥१८- ६३॥
इस प्रकार मैंने तुम्हें गुह्य से भी गूह्य इस ज्ञान का वर्णन किया। इस पर पूर्णत्या विचार करके जैसी तु्म्हारी इच्छा हो करो।
सर्वगुह्यतमं भूयः शृणु मे परमं वचः। इष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम्॥१८- ६४॥
तुम एक बार फिर से सबसे ज्यादा रहस्यमयी मेरे परम वचन सुनो। तुम मुझे बहुत प्रिय हो, इसलिये मैं तुम्हारे हित के लिये तुम्हें बताता हूँ।
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु। मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे॥१८- ६५॥
मेरे मन वाले बनो, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करने वाले बनो, मुझे नमस्कार करो। इस प्रकार तुम मुझे ही प्राप्त करोगे, मैं तुम्हें वचन देता हूँ, क्योंकि तुम मुझे प्रिय हो।
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥१८- ६६॥
सभी धर्मों को त्याग कर (हर आश्रय त्याग कर), केवल मेरी शरण में बैठ जाओ। मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्ति दिला दुँगा, इसलिये शोक मत करो।
इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन। न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति॥१८- ६७॥
इसे कभी भी उसे मत बताना जो तपस्या न करता हो, जो मेरा भक्त ना हो, और न उसे जिसमें सेवा भाव न हो, और न ही उसे जो मुझ में दोष निकालता हो।
य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति। भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः॥१८- ६८॥
जो इस परम रहस्य को मेरे भक्तों को बताता है, वह मेरी परम भक्ति करने के कारण मुझे ही प्राप्त करता है, इस में कोई संशय नहीं।
न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः। भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि॥१८- ६९॥
न ही मनुष्यों में उस से बढकर कोई मुझे प्रिय कर्म करने वाला है, और न ही इस पृथ्वि पर उस से बढकर कोई और मुझे प्रिय होगा।
अध्येष्यते च य इमं धर्म्यं संवादमावयोः। ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्टः स्यामिति मे मतिः॥१८- ७०॥
जो हम दोनों के इस धर्म संवाद का अध्ययन करेगा, वह ज्ञान यज्ञ द्वारा मेरा पूजन करेगा, यह मेरा मत है।
श्रद्धावाननसूयश्च शृणुयादपि यो नरः। सोऽपि मुक्तः शुभाँल्लोकान्प्राप्नुयात्पुण्यकर्मणाम्॥१८- ७१॥
जो मनुष्य इसको श्रद्धा और दोष-दृष्टि रहित मन से सुनेगा, वह भी (अशुभ से) मुक्त हो पुण्य कर्म करने वालों के शुभ लोकों में स्थान ग्रहण करेगा।
कच्चिदेतच्छ्रुतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा। कच्चिदज्ञानसंमोहः प्रनष्टस्ते धनंजय॥१८- ७२॥
हे पार्थ, क्या यह तुमने एकाग्र मन से सुना है। हे धनंजय, क्या तुम्हारा अज्ञान से उत्पन्न सम्मोह नष्ट हुआ है।

अर्जुन बोले:
  

नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत। स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव॥१८- ७३॥
हे अच्युत, आप की कृपा से मेरा मोह नष्ट हुआ, और मुझे वापिस स्मृति प्राप्त हुई है। मेरे सन्देह दूर हो गये हैं, और मैं आप के वचनों पर स्थित हुआ आप की आज्ञा का पालन करूंगा।

संजय बोले:
  

इत्यहं वासुदेवस्य पार्थस्य च महात्मनः। संवादमिममश्रौषमद्भुतं रोमहर्षणम्॥१८- ७४॥
इस प्रकार मैंने भगवान वासुदेव और महात्मा पार्थ के इस अद्भुत रोम हर्षित करने वाले संवाद को सुना।
व्यासप्रसादाच्छ्रुतवानेतद्गुह्यमहं परम्। योगं योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयतः स्वयम्॥१८- ७५॥
भगवान व्यास जी के कृपा से मैंने इस परम गूह्य (रहस्य) योग को साक्षात योगेश्वर श्री कृष्ण के वचनों द्वारा सुना।
राजन्संस्मृत्य संस्मृत्य संवादमिममद्भुतम्। केशवार्जुनयोः पुण्यं हृष्यामि च मुहुर्मुहुः॥१८- ७६॥
हे राजन, भगवान केशव और अर्जुन के इस अद्भुत पुण्य संवाद को बार बार याद कर मेरा हृदय पुनः पुनः हर्षित हो रहा है।
तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरेः। विस्मयो मे महान् राजन्हृष्यामि च पुनः पुनः॥१८- ७७॥
और पुनः पुनः भगवान हरि के उस अति अद्भुत रूप को याद कर, मुझे महान विस्मय हो रहा है हे राजन, और मेरा मन पुनः पुनः हर्ष से भरे जा रहा है।
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः। तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम॥१८- ७८॥ जहां योगेश्वर कृष्ण हैं, जहां धनुर्धर पार्थ हैं, वहीं पर श्री (लक्ष्मी, ऐश्वर्य, पवित्रता), विजय, विभूति और स्थिर नीति हैं - यही मेरा मत है।

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