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Friday, February 9, 2018

श्रीनाथजी का नाथद्वारा पधारने का इतिहास..



श्रीनाथजी का नाथद्वारा पधारने का
इतिहास.....

राजस्थान का श्रीनाथद्वारा शहर पुष्टिमार्गिय वैष्णव सम्प्रदाय का प्रधान पीठ है जहाँ भगवान श्रीनाथजी का विश्व
प्रसिद्ध मंदिर स्थित है।.........

प्रभु श्रीजी का प्राकट्य ब्रज के गोवर्धन
पर्वत पर जतिपुरा गाँव के निकट हुआ था।
महाप्रभु वल्लभाचार्य जी ने यहाँ जतिपुरा
गाँव में मंदिर का निर्माण करा सेवा प्रारंभ
की थी।
भारत के मुगलकालीन शासक अकबर से लेकर
औरंगजेब तक का इतिहास पुष्टि संप्रदाय के
इतिहास के समानान्तर यात्रा करता रहा।
सम्राट अकबर ने पुष्टि संप्रदाय की भावनाओं
को स्वीकार किया था। मंदिर गुसाईं श्री
विट्ठलनाथजी के समय सम्राट की बेगम
बीबी ताज तो श्रीनाथजी की परम भक्त
थी तथा तानसेन, बीरबल, टोडरमल तक पुष्टि
भक्ति मार्ग के उपासक रहे थे।
इसी काल में कई मुसलमान रसखान, मीर अहमद
इत्यादि ब्रज साहित्य के कवि श्रीकृष्ण के
भक्त रहे हैं। भारतेन्दु हरिशचन्द्र ने यहाँ तक
कहा है- ''इन मुसलमान कवियन पर कोटिक
हिन्दू वारिये''
किन्तु मुगल शासकों में औरंगजेब अत्यन्त
असहिष्णु था। कहा जाता है कि वह हिन्दू
देवी-देवताओं की मूर्तियां तोड़ने का कठोर
आदेश दिया करता था। उसकी आदेशों से
हिन्दूओं के सेव्य विग्रहों को खण्डित होने
लगे। मूर्तिपूजा के विरोधी इस शासक की
वक्र दृष्टि ब्रज में विराजमान श्रीगोवर्धन
गिरि पर स्थित श्रीनाथजी पर भी पड़ने की
संभावना थी।
ब्रजजनों के परम आराध्य व प्रिय श्रीनाथजी
के विग्रह की सुरक्षा करना महाप्रभु
श्रीवल्लभाचार्य के वंशज गोस्वामी
बालकों का प्रथम कर्तव्य था। इस दृष्टि से
महाप्रभु श्रीवल्लभाचार्य के वंशज
श्रीनाथजी के विग्रह को लेकर प्रभुआज्ञा से
ब्रज छोड़ देना उचित समझा और श्रीनाथजी
को लेकर वि. सं. 1726 आश्विन शुक्ल 15
शुक्रवार की रात्रि के पिछले प्रहर रथ में
पधराकर ब्रज से प्रस्थान किया।
श्रीनाथजी का स्वरूप ब्रज में 177 वर्ष तक
रहा था। श्रीनाथजी अपने प्राकट्य संवत्
1549 से लेकर सं. 1726 तक ब्रज में सेवा
स्वीकारते रहे।
उधर गोवर्धन से श्रीनाथजी के विग्रह से सजे
रथ के साथ सभी भक्त आगरे की ओर चल पड़े। बूढ़े
बाबा महादेव आगे प्रकाश करते हुए चल रहे थे।
वो सब आगरा हवेली में अज्ञात रूप से पहुँचे।
यहां से कार्तिक शुक्ला २ को पुनः
लक्ष्यविहीन यात्रा पर चले।
श्रीनाथजी के साथ रथ में परम भक्त गंगाबाई
रहती थी। तीनों भाईयों में एक श्री
वल्लभजी डेरा-तम्बू लेकर आगामी निवास
की व्यवस्था हेतु चलते। साथ में रसोइया,
बाल भोगिया, जलघरिया भी रहते थे। श्री
गोविन्द जी श्रीनाथजी के साथ रथ के आगे
घोड़े पर चलते और श्रीबालकृष्णजी रथ के पीछे
चलते। बहू-बेटी परिवार दूसरे रथ में पीछे चलते
थे। सभी परिवार मिलकर श्रीनाथजी के
लिए सामग्री बनाते व भोग धराते। मार्ग में
संक्षिप्त अष्टयाम सेवा चलती रही।
आगरा से चलकर ग्वालियर राज्य में चंबल नदी
के तटवर्ती दंडोतीधार नामक स्थान पर
मुकाम किया। वहां कृष्णपुरी में श्रीनाथजी
बिराजे। वहां से चलकर कोटा पहुँचे तथा यहाँ
के कृष्णविलास की पद्मशिला पर चार माह
तक विराजमान रहे। कोटा से चलकर पुष्कर
होते हुए कृष्णगढ़ (किशनगढ़) पधराए गए। वहां
नगर से दो मील दूर पहाड़ी पर पीताम्बरजी
की गाल में बिराजे
कृष्णगढ़ से चलकर जोधपुर राज्य में बंबाल और
बीसलपुर स्थानों से होते हुए चौपासनी पहुँचे,
जहाँ श्रीनाथजी चार-पांच माह तक
बिराजे तथा संवत् 1727 के कार्तिक माह में
अन्नकूट उत्सव भी किया गया।
अंत में मेवाड़ राज्य के सिहाड़ नामक स्थान में
पहुँचकर स्थाई रूप से बिराजमान हुए। उस काल
में वीरभूमि मेवाड़ के महाराणा श्री
राजसिंह सर्वाधिक शक्तिशाली हिन्दू
राजा थे। उसने औरंगजेब की उपेक्षा कर पुष्टि
संप्रदाय के गोस्वामियों को आश्रय और
संरक्षण प्रदान किया था।
संवत् 1728 कार्तिक माह में श्रीनाथजी
सिहाड़ पहुँचे थे। वहां मन्दिर बन जाने पर
फाल्गुन कृष्ण सप्तमी शनिवार को उनका
पाटोत्सव किया गया। इस प्रकार
श्रीनाथजी को गिरिराज के मन्दिर से
पधराकर सिहाड़ के मन्दिर में बिराजमान करने
तक दो वर्ष चार माह सात दिन का समय
लगा था।
श्रीनाथजी के नाम के कारण ही मेवाड़ का
वह अप्रसिद्ध सिहाड़ ग्राम अब
श्रीनाथद्वारा नाम से भारत वर्ष में
सुविख्यात है।...........
जय श्री कृष्ण।......

श्रीनाथद्वारा


।।जय श्री कृष्‍ण ।।
भगवान श्रीनाथजी का प्राकट्य :- भगवान श्रीकृष्ण ने अपने भक्तों की विनती पर आशीर्वाद दिया, समस्त दैवीय जीवों के कल्याण के लिये कलयुग में मैं ब्रजलोक में श्रीनाथजी के नाम से प्रकट होउंगा । उसी भावना को पूर्ण करने ब्रजलोक में मथुरा के निकट जतीपुरा ग्राम में श्री गोवर्धन पर्वत पर भगवान श्रीनाथजी प्रकट हुये । प्राकट्य का समय ज्यों ज्यों निकट आया श्रीनाथजी की लीलाएँ शुरु हो गई । आस पास के ब्रजवासियों की गायें घास चरने श्रीगोवेर्धन पर्वत पर जाती उन्हीं में से सद्द् पाण्डे की घूमर नाम की गाय अपना कुछ दूध श्रीनाथजी के लीला स्थल पर अर्पित कर आती । कई समय तक यह् सिलसिला चलता रहा तो ब्रजवासियों को कौतुहल जगा कि आखिर ये क्या लीला है, उन्होंने खोजबीन की, उन्हें श्रीगिरिराज पर्वत पर श्रीनाथजी की उर्ध्व वाम भुजा के दर्शन हुये। वहीं गौमाताएं अपना दूध चढा आती थी।उन्हें यह् दैवीय चमत्कार लगा और प्रभु की भविष्यवाणी सत्य प्रतीत होती नजर आयी । उन्होंने उर्ध्व भुजा की पुजा आराधना शुरु कर दी। कुछ समय उपरांत संवत् 1535 में वैशाख कृष्ण 11 को गिरिराज पर्वत पर श्रीनाथजी के मुखारविन्द का प्राकट्य हुआ और तदुपरांत सम्पूर्ण स्वरूप का प्राकट्य हुआ। ब्रजवासीगण अपनी श्रद्धानुसार सेवा आराधना करते रहे।

“श्रीनाथद्वारा” जहाँ मूर्ति भंजक औरंगजेब ने भी देखी श्रीनाथ जी की महिमा





“श्रीनाथद्वारा” जहाँ मूर्ति भंजक औरंगजेब ने भी देखी श्रीनाथ जी की महिमा

भले ही यह प्रसंग इतिहास में न आया हो किन्तु इसे जन-श्रुति या लोक-श्रुति कह सकते हैं ! श्रीनाथद्वारा में सुप्रसिद्ध मन्दिर के शिखर पर सात ध्वजाएं फहराती हैं, परन्तु एक "गाइड" के द्वारा मिली जानकारी के अनुसार भगवान श्रीनाथ जी की ठोढ़ी पर जो मूल्यवान हीरा सुशोभित है वह दुर्दान्त और मन्दिर विध्वंसक मुगल शासक औरंगजेब की मां ने ही भेंट किया था ! 

एक बार औरंगजेब श्रीनाथद्वारा मन्दिर को ध्वस्त करने आया था तो मन्दिर की सीढ़ियां चढ़ते ही उसकी नेत्र-ज्योति नष्ट हो गई ! वह अंधा होकर रास्ता टटोलने लगा और भयभीत होकर उसने वहीं से भगवान श्रीनाथ जी से अपने कुकृत्यों की क्षमा मांगी ! इसके बाद उसकी नेत्र ज्योति वापस आ गई ! इस घटना के तुरन्त बाद औरंगजेब सेना सहित भीगी बिल्ली की भांति वापस लौट गया ! जब यह घटना उसकी मां को पता लगी तो उसने यह हीरा मूर्ति के श्रंगार के लिए अर्पित किया !

हमले से पूर्व औरंगजेब ने सेना भेजकर मन्दिर नष्ट करने की कुचेष्टा की थी ! लेकिन जब उसकी सेना खमनेर आकर बनारस नदी के तट पर रुकी तो श्रीनाथद्वारा मन्दिर से भौरों ने बड़ी मात्रा में निकलकर सेना पर हमला कर दिया और वह सर पर पैर रखकर पलायन कर गई ! इस हमले से क्रुद्ध होकर ही औरंगजेब स्वयं हमला करने आया था लेकिन उसे भी मांफी मांगनी पड़ी ! इसके बाद उसने जो फरमान जारी किया उसका शिलालेख आज भी साक्ष्य के रूप में मन्दिर के मुख्य द्वार पर लगा है !

इस मन्दिर में 125 मन चावल का भोग नित्य लगता है ! क्षेत्र के वनवासी बंधु भोग प्राप्त करते हैं जिसे "लूटना" कहा जाता है ! इसके अतिरिक्त 56 प्रकार के भोग भी श्रीनाथ जी को अर्पित किए जाते हैं ! भोग में उपयोग होने वाली कस्तूरी को सोने की चक्की से पीसा जाता है ! भंडार घर में घी-तेल का भण्डार रहता है ! मन्दिर गृह को नन्द बाबा का भवन कहा जाता है ! लगभग दर्जन भर राज्यों के 30 गांव मन्दिर को दान में मिले हुए हैं ! यहां बिना जाति-भेद के दर्शन सुलभ हैं !

श्रीनाथ द्वारा में श्रीनाथ जी को आचार्य दामोदरदास बृज क्षेत्र गोवर्धन पर्वत से जब लाए तो मेवाड़ नरेश महाराजा राज सिंह ने वहां मूर्ति स्थापना करायी तथा श्रीनाथ जी की सेवा-पूजा के लिए सिहाड़ ग्राम समर्पित किया | इसके पूर्व बृजधाम में श्रीनाथ मन्दिर को ध्वस्त करना औरंगजेब ने अपना लक्ष्य बना लिया था | तब श्रीनाथजी को बृज से श्रीनाथद्वारा ले जाया गया ! उस समय महाराजा राज सिंह ने औरंगजेब को चुनौतीपूर्ण स्वर में कहा था- "वह आए यहां, मंदिर तक पहुंचने से पहले उसे एक लाख" राजपूतों से निपटना होगा ! वह श्रीनाथजी को हाथ नहीं लगा सकता !
(नोट: यह प्रसंग "जर्नल ऑफ द राजस्थान इंस्टीट्यूट आफ हिस्टोरिकल रिसर्च" के पृष्ठ-42-43 पर उल्लेखित है)
नाथद्वारा कस्बा राजस्थान के राजसमंद जिले में स्थित है ! यहां श्री नाथ जी का भव्य मंदिर स्थित है जो कि पुष्टिमार्गीय वैष्णव सम्प्रदाय का प्रधान (प्रमुख) पीठ है ! नाथद्वारा का शाब्दिक अर्थ श्रीनाथ जी का द्वार होता है ! श्री कृष्ण यहां श्रीनाथ जी के नाम से विख्यात हैं ! काले पत्थर की बनी श्रीनाथ जी की इस मूर्ति की स्थापना 1669 में की गई थी ! वैष्णव पंथ का यह मंदिर शिर्डी स्थित सांईबाबा, तिरुपति स्थित बालाजी और मुंबई स्थित सिद्धी विनायक मंदिर जैसे भारत के सबसे अमीर मंदिरों की श्रेणी में आता है !
यहां श्रद्धाभाव के साथ दूर-दूर से भक्त दर्शन के लिए आते हैं ! नाथद्वारा कस्बे की तंग गलियों के बीच स्थित श्रीनाथ जी के प्रति लोगों की इतनी गहरी आस्था और श्रद्धाभाव है कि साल भर यहां भक्तों का हुजूम लगा रहता है ! यूं तो श्रीनाथ जी का मंदिर भारत के लगभग हर शहर में और दुनिया में कई जगह हैं, लेकिन श्रीनाथ जी के हर मंदिर में ऐसी भीड़ एकत्रित नहीं होती है !
दरअसल कुछ ज्योतिषियों और वास्तुविदों का मानना है कि इसका कारण मंदिर की भौगोलिक स्थिति और बनावट है ! जो लोग श्रीनाथ जी में आस्था रखते हैं वे ये मानते हैं कि यहां जो भी मन्नत मांगी जाती है वो जरूर पूरी होती है !

तीर्थस्थल

श्रीनाथ द्वारा

श्रीनाथ द्वारा हिन्दू धर्म की पुष्टि मार्गीय वैष्णवी शाखा की प्रमुख पीठ है। यहां पर प्रत्येक वर्ष देश एवं विदेश से लाखों वैष्णव श्रद्धालु दर्शनार्थ आते रहते हैं।  जी का दर्शन कर अपने जीवन को धन्य मानते हुए वापस लौट जाते हैं। भगवान श्रीकृष्ण का उपनाम श्रीनाथ जी भी है और वे वल्लभ सम्प्रदाय द्वारा पूज्य रहे हैं। इस प्रकार हिन्दुओं के प्रमुख तीर्थस्थलों में इसकी मान्यता है। 

भौगोलिक स्थिति :-

श्रीनाथ द्वारा भारत के राजस्थान प्रान्त के राजसमन्द जनपद के अन्तर्गत बनास नदी के किनारे पर स्थित है तथा वल्लभ सम्प्रदाय का मुख्य तीर्थस्थल है। यह राजस्थान के प्रसिद्ध नगर उदयपुर से मात्र ४८ किलोमीटर की दूरी पर राष्ट्रिय राजमार्ग संख्या ८ पर स्थित है। वल्लभ सम्प्रदाय की प्रधान पीठ होने के कारण यहां पर श्रीनाथ जी का भव्य मन्दिर बना हुआ है। यहां का निकटतम हवाई अड्डा उदयपुर है। श्रीनाथ द्वारा के उत्तर में १७ किलोमीटर की दूरी पर राजसमन्द ,२२५ किलोमीटर की दूरी पर अजमेर ,२४० किलोमीटर की दूरी पर पुष्कर ,३८५ किलोमीटर की दूरी पर जयपुर एवं ६२५ किलोमीटर की दूरी पर दिल्ली स्थित है। इसके दक्षिण में ४८ किलोमीटर की दूरी पर उदयपुर ,३०० किलोमीटर की दूरी पर अहमदाबाद व ८०० किलोमीटर की दूरी पर बम्बई शहर स्थित है। श्रीनाथ द्वारा से पश्चिम की ओर १८० किलोमीटर दूरी पर फालना व २२५ किलोमीटर की दूरी पर जोधपुर नगर स्थित है। इसके पूर्व में मण्डियाना रेलवे स्टेशन १२ किलोमीटर की दूरी पर ,मावली रेलवे स्टेशन २८ किलोमीटर की दूरी पर तथा चित्तौड़गढ़ एवं कोटा नगर कमशः ११० किलोमीटर व १८० किलोमीटर की दूरी पर स्थित हैं। श्रीनाथ द्वारा के निकटवर्ती रेलवे स्टेशन मावली एवं उदयपुर से देश के सभी प्रमुख नगरों के लिए रेल सेवा उपलब्ध है। 

पौराणिक एवं ऐतिहासिक साक्ष्य :-

श्रीनाथ द्वारा मन्दिर की प्रधान मूर्ति को मुस्लिम राजाओं के आक्रमण के डर से सन् १६६९ ई० में गोवर्धन पर्वत से नाथद्वारा ले आई गई थी। श्रीकृष्ण की बाल लीला का चित्रण विशेष रूप से इस मंदिर की दीवारों में किया गया है और  इस मंदिर का बाह्य स्वरूप मंदिर जैसा नहीं है बल्कि इसे भगवान श्रीकृष्ण के आवास स्थल के रूप में ही ३३७ वर्ष पूर्व बनवाया गया था। इसके शिखर पर एक कलश एवं सुदर्शन चक्र रखा है तथा नित्य सप्त ध्वज इस पर लहराता रहता है। 
कहा जाता है कि महाप्रभु वल्ल्भचार्य जब इस क्षेत्र में प्रथम बार पधारे थे तो रात्रि विश्राम के दौरान उन्होंने स्वप्न में श्रीकृष्ण भगवान के दर्शन किये थे तथा स्वप्न में ही उन्हें ब्रज आने का आमंत्रण भी मिला था। इस आदेश के अनुपालन में जब वे ब्रज पहुंचे तो भगवान श्रीकृष्ण स्वयं गोवर्धन पर्वत से नीचे आकर उन्हें अपने विराट रूप के दर्शन दिए थे और तभी उन्हें पुष्टि मार्ग पर चलने के निर्देश भी दिए थे। स्थानीय सहयोग से स्वामी वल्ल्भाचार्य ने वहां गोवर्धन पर्वत पर श्रीकृष्ण के भव्य मन्दिर का निर्माण करवाया एवं उसमें स्थापित की गई मूर्ति को श्रीनाथजी की संज्ञा दी गई। मुगल सम्राट औरंगजेब द्वारा मथुरा पर आक्रमण करने के दौरान स्वामी गोविन्द जी ने श्रीनाथजी की मूर्ति को रथ पर रखकर मेवाड़ ले आये थे तथा वैदिक रीति से फाल्गुन कृष्ण सप्तमी दिन शनिवार को  श्रीनाथ जी की पुनर्स्थापना करा दी गई और  बाद में इसी स्थान को श्रीनाथ द्वारा के नाम से जाना जाने लगा। 

अन्य दर्शनीय स्थल :-

श्री नाथद्वारा अरावली पर्वत की सुरम्य उपत्यकाओं  के मध्य झीलों की नगरी उदयपुर से मात्र ४८ किलोमीटर की दूरी पर स्थित होने के कारण यह अपने प्राकृतिक सौन्दर्य के लिए विशेष रूप से जाना जाता है। वैसे तो यहां का प्रमुख मन्दिर श्री नाथद्वारा ही है किन्तु इसके निकट पुष्टिमार्ग की प्रथम पीठ के रूप में श्रीविट्ठल नाथ जी एवं श्री हरीराय महाप्रभु की बैठक तथा श्रीवनमाली लाल जी का मंदिर एवं मीरा मन्दिर स्थित है। यहां से २ किलोमीटर की दूरी पर श्री नाथजी की गौशाला ,लालबाग एवं संग्रहालय राष्ट्रीय राजमार्ग पर ही स्थित है। प्रकृति के आंचल में निर्मित श्री गणेश जी का मन्दिर यहां से थोड़ी दूर पर स्थित गणेश टेकरी में बनवाया गया है। यहां का सूर्यास्त देखने के लिए पर्यटक दूर दूर से आकर सायंकाल में यहां उपस्थित होते हैं। प्राकृतिक अन्य दर्शनीय स्थलों में रामभोला ,गणगौर बाग ,कछुवायी बाग़ ,बनास नदी ,गिरिराज पर्वत ,महेश टेकरी ,श्रीवल्ल्भ आश्रम ,नंदसमंद बांध व हल्दी घाटी प्रमुख हैं।  अन्य धार्मिक स्थलों में श्री हरिराम जी की बैठक ,गायत्री शक्तिपीठ ,रामेष्वर महादेव मंदिर ,द्वारिकाधीश मंदिर, कुन्तेश्वर महादेव मंदिर ,श्रीचारभुजा मंदिर श्रीरोकडिया हनुमान जी का मंदिर ,श्री रूपनारायण मंदिर प्रमुख हैं। यहां से २८ किलोमीटर दूरी पर श्री एकलिंग जी का मंदिर है जिसमें भगवान शिव की ८ वीं शताब्दी में निर्मित मूर्ति स्थापित की गई है। यहां से थोड़ी दूर पर ही रकमगढ का छप्पर नामक स्थान है जहां अंग्रेजों एवं तात्याटोपे के मध्य युद्ध हुआ था। यहीं पर वृहदपेय जल परियोजना बघेरी का नाका में बनास नदी पर  बांध बनाकर बनाई गई है। कुम्भलगढ वन्यजीव अभ्यारण्य यहां से ५५ किलोमीटर की दूरी पर है जहां पर्यटकों का आवागमन बना रहता है। विश्व प्रसिद्ध दिलवाड़ा जैन मंदिर यहां से २२ किलोमीटर की दूरी पर है तथा ६० किलोमीटर की दूरी पर परशुराम महादेव जी का मंदिर स्थित है। अणुव्रत विश्व भारती भवन ,दयाल शाह का किला ,राजसमन्द झील ,नौचंदी पाल यहां के अन्य दर्शनीय स्थल हैं जो थोड़ी ही दूरी पर स्थित हैं। 

नाथद्वारा के श्रीनाथ मंदिर में भक्तों की भीड़ क्यों लगी रहती है?

उदयपुर से 50 किलामीटर दूर उदयपुर-अजमेर सड़क पर अन्यतम वैष्णव तीर्थ नाथद्वारा है। नाथद्वारा का शाब्दिक अर्थ श्रीनाथ जी का द्वार होता है। श्री कृष्ण यहां श्रीनाथ जी के नाम से विख्यात हैं। काले पत्थर की बनी श्रीनाथ जी की इस मूर्ति की स्थापना 1669 में की गई थी। वैष्णव पंथ का यह मंदिर शिर्डी स्थित सांईबाबा, तिरुपति स्थित बाला जी और मुंबई स्थित सिद्धी विनायक मंदिर जैसे ख्याति
 प्राप्त धनाढ्य मंदिरों की श्रेणी में आता है, जहां अनन्य श्रद्धाभाव के साथ दूर-दूर से भक्तजन दर्शन के लिए आते हैं।

यहां जन्माष्टमी, होली और दीवाली पर होने वाले विशेष आयोजनों में भक्तों का भारी हुजुम इकट्ठा होता है। इस स्थान की एक और विशेषता यह है कि श्रीनाथ जी का मंदिर और नाथद्वारा कस्बा दोनों की ही खूब ख्याति है। यह ख्याति उसी प्रकार है जैसे बाला जी के साथ तिरुपति की सांईबाबा के साथ शिर्डी की। यदि कोई नाथद्वारा जाने की बात कहता है तो समझ में आ जाता है कि वह श्रीनाथ जी के दर्शन करने जाने की बात कर रहा है।

तंग गलियों के बीच स्थित श्रीनाथ जी के इस मंदिर में और नाथद्वारा कस्बे में आखिर ऐसा क्या है कि लोग दूर-दूर से यहां आते हैं और श्रीनाथ जी के प्रति इतनी गहरी आस्था और श्रद्धाभाव रखते हैं। यह सब हो रहा है केवल वास्तु के कारण। यूं तो श्रीनाथ जी का मंदिर भारत के लगभग हर शहर में और दुनिया में कई जगह हैं, किन्तु श्रीनाथ जी के हर मंदिर में तो ऐसी भीड़ एकत्रित नहीं होती है जैसी नाथद्वारा के श्रीनाथ जी के मंदिर में? इसका एकमात्र कारण यह है कि जिन धर्मिक स्थलों की भौगोलिक स्थिति एवं बनावट वास्तु सिद्धान्तों के अनुकुल हो जाती है केवल वही स्थान विशेष प्रसिद्धि प्राप्त करते हैं, लोग वहां मन्नते मांगते हैं मन्नतें पूरी होने पर भारी चढ़ावा चढ़ाते हैं।

आईए देखते हैं कि श्रीनाथ जी और नाथद्वारा दोनों अपनी किन वास्तुनुकूलताओं के कारण प्रसिद्ध है -

एक ओर जहां उदयपुर से आते समय जहां से नाथद्वारा की सीमा प्रारम्भ होती है, वहीं से उत्तर दिशा की ओर तीखा ढलान है यह ढलान पूरे नाथद्वारा को पार करने के बाद कस्बे के दूसरी ओर बनास नदी तक चला गया है। नाथद्वारा की उत्तर दिशा में बहने वाली यह बनास नदी 480 किलोमीटर लम्बी राजस्थान की सबसे बड़ी नदी है जो पश्चिम से पूर्व दिशा की ओर बह रही है। ऐसी ही वास्तु स्थिति मदुरै शहर की भी है जहां प्रसिद्ध मीनाक्षी मंदिर है। मदुरै शहर की उत्तर दिशा में भी वैगे नदी पश्चिम से पूर्व दिशा की ओर बह रही है जो मदुरै शहर की प्रसिद्धि का कारण है। नाथद्वारा की दक्षिण दिशा के साथ-साथ पश्चिम दिशा वाला भाग भी ऊंचा है। पूरा कस्बा दक्षिण और पश्चिम दिशा में ऊंचा है और पूरे शहर की जमीन का ढलान उत्तर और पूर्व दिशा की ओर है।

श्रीनाथ जी का मंदिर नाथद्वारा के नैऋत्य कोण वाले भाग में स्थित है। श्रीनाथ जी के मंदिर परिसर का भी दक्षिण एवं पश्चिम भाग ऊंचा है और परिसर में क्रमानुसार पश्चिम दिशा से पूर्व दिशा की ओर तथा दक्षिण दिशा से उत्तर दिशा की ओर तीखा उतार है। इसी कारण वहां बने हॉल व कमरे एक के बाद एक सीढ़ीनुमा बने हैं। यही वास्तुनुकूल भौगोलिक स्थिति तिरुपति बालाजी और शिर्डी के सांई मंदिर में है।
 तिरुपति बालाजी में दक्षिण पश्चिम दिशा एवं नैऋत्य कोण में ऊंचाई तथा उत्तर, पूर्व दिशा तथा ईशान कोण में नीचाई के साथ ही पुष्करणी तालाब है। यहां एक अन्तर जरूर है कि, श्रीनाथ जी में पश्चिम दिशा में ऊंचाई है परन्तु तिरुपति बालाजी में पश्चिम दिशा में मंदिर परिसर से सटकर विशाल पहाड़ हैं। तिरुपति बालाजी में मंदिर परिसर के अन्दर ईशान कोण में पुष्करणी तालाब है जबकि श्रीनाथ जी मंदिर परिसर के बाहर थोड़ी दूरी पर ईशान कोण में एक बड़ा सिंहाड तालाब है। जहां तालाब के मध्य विश्वकर्मा जी का छोटा मंदिर भी बना हुआ है।

मंदिर परिसर के बाहर पूर्व दिशा में श्रीनाथ जी का खर्च भंडार भवन है। खर्च भंडार के बाहर उत्तर एवं पूर्व दिशा में ढलान है और भंडार के अन्दर श्रीनाथ जी मंदिर परिसर की तरह पश्चिम दिशा के कमरों का फर्श ऊंचे और पूर्व दिशा में बने कमरों का फर्श नीचा है। खर्च भंडार की पूर्व दिशा की इसी नीचाई के साथ-साथ पूर्व दिशा में चार बड़े घी के कुंए भी बने हुए हैं।

श्रीनाथजी मंदिर परिसर में तीन द्वार हैं एक द्वार उत्तर दिशा की ओर और दो द्वार पूर्व दिशा की ओर हैं। यह सभी द्वारा वास्तुनुकूल स्थिति में है। पूर्व दिशा की ओर स्थित दोनों द्वारों तक पहुंचने के लिए जो रास्ते हैं उनमें उत्तर दिशा की ओर घुमाव लिए हुए तीखा ढलान है। यह तो हुई श्रीनाथ जी एवं नाथद्वारा कस्बे की वास्तुनुकूलताएं जो इस स्थान की वैभव और प्रसिद्धि बढ़ाने में सहायक हो रही हैं लेकिन यहां चीनी वास्तुशास्त्र फेंगशुई का भी एक सिद्धांत भी लागू हो रहा है जो इनकी यश और प्रसिद्धि बढ़ाने में और अधिक सहायक हो रहा है जैसा जम्मू स्थित वैष्णोदेवी, उज्जैन का महाकालेश्वर मंदिर इत्यादि हैं।

फेंगशुई के सिद्धांत:
फेंगशुई का एक सिद्धांत है कि यदि पहाड़ के मध्य में कोई भवन बना हो जिसके पीछे पहाड़ की ऊंचाई हो आगे की तरफ पहाड़ की ढलान हो और ढलान के बाद पानी का झरना, कुण्ड, तालाब, नदी इत्यादि हो तो ऐसा भवन प्रसिद्धि पाता है और सदियों तक बना रहता है। फेंगशुई के इस सिद्धांत में दिशा का कोई महत्त्व नहीं है। ऐसा भवन किसी भी दिशा में हो सकता है। चाहे पूर्व दिशा ऊंची हो और पश्चिम में ढलान के बाद तालाब हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। नाथद्वारा में भी दक्षिण एवं पश्चिम दिशा में बहुत ऊंचाई है और उत्तर पूर्व दिशा की ओर तीखा ढलान है और ढलान के मध्य में श्रीनाथ मंदिर परिसर है। इस परिसर के बाद सिंहाड तालाब है और तालाब के बाद बनास नदी बह रही है। इसलिए यह कहना कि नाथद्वारा एवं श्रीनाथ जी का मंदिर परिसर वास्तु एवं फेंगशुई दोनों के सिद्धान्तों के अनुकुल होने के कारण ही इनको इतनी प्रसिद्धि मिली है, गलत नहीं होगा।

पुष्टिमार्ग के सर्वस्व प्रभु श्रीनाथजी


पुष्टिमार्ग के सर्वस्व प्रभु श्रीनाथजी

श्रीनाथजी निकुंज के द्वार पर स्थित भगवान् श्रीकृष्ण का साक्षात् स्वरूप है। आप अपना वाम (बायाँ) श्रीहस्त ऊपर उठाकर अपने भक्तों को अपने पास बुला रहे है। मानों आप श्री कह रहे है। - ''मेरे परम प्रिय! हजारों वर्षो से तुम मुझसे बिछुड़ गये हों। मुझे तुम्हारे बिना सुहाता नहीं है। आओ मेरे निकट आओं और लीला का रस लो। ''प्रभु वाम अंग पुष्टि रूप है। वाम श्रीहस्त उठाकर भक्तों को पुकारने का तात्पर्य है कि प्रभु अपने पुष्टि भक्तों की पात्रता, योग्यता-अयोग्यता का विचार नहीं करते और न उनसे भगवत्प्राप्ति के शास्त्रों में कहे गये साधनों की अपेक्षा ही करते है। वे तो निःसाधन जनो पर कृपा कर उन्हे टेर रहे है। श्रीहस्त ऊँचा उठाकर यह भी संकेत कर रहे है कि जिस लील-रस का पान करने के लिए वे भक्तों को आमंत्रित कर रहे है, वह सांसारिक विषयों के लौकिक आनन्द और ब्रह्मानन्द से ऊपर उठाकर भक्त को भजनानन्द में मग्न करना चाहते है।परम प्रभु श्रीनाथजी का स्वरूप दिव्य सौन्दर्य का भंडार और माधुर्य की निधि है। मधुराधिपती श्रीनाथजी का सब कुछ मधुर ही मधुर है। अपने सौन्दर्य एवं माधुर्य से भक्तों को वे ऐसा आकर्षित कर लेते हैं कि भक्त प्रपंच को भूलकर देह-गेह-संबंधीजन-जगत् सभी को भुलाकर प्रभु में ही रम जाता है, उन्ही में पूरी तरह निरूद्ध हो जाता है। यही तो हैं प्रभु का भक्तों के मन को अपनी मुट्ठी बाँधना। वास्तव में प्रभु अपने भक्तों के मन को मुट्ठी में केद नहीं करते वे तो प्रभु-प्रेम से भरे भक्त-मन रूपी बहुमूल्य रत्नों को अपनी मुट्ठी में सहेज कर रखते है। इसी कारण श्रीनाथजी दक्षिण (दाहिने) श्रीहस्त की मुट्ठी बाँधकर अपनी कटि पर रखकर निश्चिन्त खडे़ है। दाहिना श्रीहस्त प्रभु की अनुकूलता का द्योतक है। यह प्रभु की चातुरी श्रीनाथजी के स्वरूप में प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होती है। प्रभु श्रीनाथजी नृत्य की मुद्रा में खडे है। यह आत्मस्वरूप गोपियों के साथ प्रभु के आत्मरमण की, रासलीला की भावनीय मुद्रा है। रासरस ही परम रस है, परम फल है। प्रभु भक्तों को वही देना चाहते है।
                           पुष्टिमार्ग के सर्वस्व प्रभु श्रीनाथजी के स्वरूप का वर्णन 'अणुभाष्य -प्रकाश-रश्मि' में किया गया हैं-
                                                           'उक्षिप्तहस्तपुरूषो भक्तमाकारयत्युत'
                                                            दक्षिणेन करेणासौ मुष्ठीकृत्य मनांसिनः ।
                                                            वाम कर समुद्धृत्य निहनुते पश्य चातुरीम्‌॥
                       गो. श्री द्वारकेशजी ने इसी भाव का शब्दांकन एक पद में सुन्दर ढंग से किया हैः-
                                                            देक्ष्यो री मै श्याम स्वरूप।
                                                             वाम भुजा ऊँचे कर गिरिधर,
                                                              दक्षिण कर कटि धरत अनूप।
                                                              मुष्टिका बाँध अंगुष्ट दिखावत,
                                                              सन्मुख दृष्टि सुहाई।
                                                             चरण कमल युगल सम धरके,
                                                              कुंज द्वार मन लाई।
                                                              अतिरहस्य निकुंज की लीला,
                                                              हृदय स्मरण कीजै।
                                                              'द्वारकेश' मन-वचन-अगोचर,
                                                              चरण-कमल चित दीजै॥
                      श्रीनाथजी के मस्तक पर जूडा है, मानों श्री स्वामिनीजी ने प्रभु के केश सँवार कर जूडें के रूप में बाँध दिये है। कर्ण और नासिका में माता यशोदा के द्वारा कर्ण-छेदन-संस्कार के समय करवाये गये छेद हैं। आप श्रीकंठ में एक पतली सी माला 'कंठसिरी' धारण किए हुए है। कटि पर प्रभु ने 'तनिया' (छोटा वस्त्र) धारण कर रखा है। घुटने से नीचे तक लटकने वाली 'तनमाला' भी प्रभु ने धारण कर रखी है। आपके श्रीहस्त में कड़े है, जिन्हे मानों श्रीस्वामिनीजी ने प्रेमपूर्वक पहनाया है। निकुंजनायक श्री नाथजी का यह स्वरूप किशोरावस्था का है। प्रभु श्री कृष्ण मूलतः श्यामवर्ण है। श्रृंगार रस का वर्ण श्याम ही है। प्रभु श्रीनाथजी तो श्रृंगार रस, परम प्रेम रूप है। वही मानों उनके स्वरूप में उमडा पड़ रहा है। अतः आपश्री का श्यामवर्ण होना स्वभाविक है किन्तु श्रीनाथजी के स्वरूप में एक विशेषता यह है कि उनके स्वरूप में भक्तों के प्रति जो अनुराग उमड़ता है इसलिए उनकी श्यामता मे अनुराग की लालिमा भी झलकती है। इसी कारण श्रीनाथजी का स्वरूप लालिमायुक्त श्यामवर्ण का है। प्रभु की दृष्टि सम्मुख और किचिंत नीचे की ओर है क्योंकि वे शरणागत भक्तो पर स्नेहमयी कृपापूर्ण दृष्टि डाल रहे है। प्रभु श्रीनाथजी की यह अनुग्रहयुक्त दृष्टि ही तो पुष्टिभक्तों का सर्वस्व है।

नाथद्वारा के मंदिरों की मूर्कित्तयाँ

श्रीनाथजी को अन्ततः नाथद्वारा में प्रतिस्थापित कर दिये जाने से बादशाह औरंगजेब महाराणा राजसिंहजी से चिढ़ गया तथा उसकी सेना ने मेवाड़ पर आक्रमण कर दिया लेकिन राजपूतों के शौर्य ने उसके आक्रमण का मुँहतोड़ जबाव दिया।
नाथद्वारा को मेवाड़ के विभिन्न महाराणाओं द्वारा समय-समय पर विशेष राजाश्रय मिलता रहा। उनके अगाध विश्वास ने इस नगर के विकास में योगदान दिया। राजसिंह के पुत्र जयसिंह नाथद्वारा को कामलिभावास नामक गाँव भेंट किया वहीं उनके पुत्र महाराणा अमरसिंह ने अपली ओड़न व बागोल नामक गाँव भेंट किया। इसके बाद संग्रामसिंह, प्रतापसिंह, राजसिंह (द्वितीय), अरिसिंह तथा हमीरसिंह आदि महाराणाओं ने श्रीनाथजी को समय-समय पर प्रभूत सेवाएँ समर्पित की।
गोस्वामी ति. श्री दामोदरजी महाराज के पुत्र श्री विट्ठलेशरायजी का नगर-निर्माण में विशेष योगदान रहा। उन्होने श्रीनाथजी की सेवा करने वाले जातियों को मंदिर के आस-पास की ऊँची पहाड़ियों पर बसाया। इस तरह गूर्जरपुरा, लोधाघाटी और मंदिर पिछवाड़ नामक मोहल्ले बसाये गये। धीरे-धीरे आस-पास के निवासी अपने-अपने गाँव छोड़कर यहाँ बस गये। श्री गिरधरजी महाराज ने नगर-निर्माण सम्बन्धी पेचीदगियों को दूर करने में भरपूर सहयोग दिया।
वि. सं. १८३५ में अजमेर मेरवाड़ा के मेरो ने मेवाड़ पर आक्रमण किया उसी समय तब पिण्डारियों ने नाथद्वारा में घूसकर काफी लूट-खसोट की। निरन्तर अशान्ति का सिलसिला बना हुआ था इसी बीच वि. सं. १८५८ में दौलतराव सिन्धिया से पराजित होकर जसवंतराव होल्कर मेवाड़ भूमि की तरफ आया। सिंधिया की सेनाएँ भी उसे ढूँढ़ते-ढूँढ़ते यहाँ आयी तथा नाथद्वारा का अनुपम वैभव देखकर गोस्वामी श्री गिरधर जी महाराज से तीन लाख की मांग की। गोस्वामी जी ने तुरन्त इसकी सूचना महाराणा को दी। महाराणा ने नाथद्वारा के रक्षार्थ कई सरदारों को भेजा तथा भविष्य में सुरक्षार्थ श्री नाथजी को उदयपुर लाने की आज्ञा दी। बाद में नाथद्वारा नगर में होल्कर की सेनाएँ प्रवेश कर चुकी थी। उसने पुनः नगरवासियों का लूट-खसोट कर यातनाएँ दी।
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धस्यार प्रस्थान
इन परिस्थितयों में तिलकायतश्री अपने को असुरक्षित मान श्रीनाथजी एवं अन्य स्वरुप द्वय (श्री नवनीत जी तथा श्री विट्ठलनाथजी) को किसी निर्जन स्थान में ले जाने का विचार करने लगे। अंततः धस्यार को इसके लिए उपयुक्त स्थान समझा गया। यह स्थान सुन्दर पर्वतों के मण्य होने के कारण दुर्गम तथा सुरक्षित था। वहाँ नाथद्वारा के मंदिर के सदृश ही विशाल मंदिर बनवाया गया। इस प्रकार तिलकायत श्री गिरधरजी ने अपनी अद्भुत नीतिसत्ता से वहाँ दूसरा नाथद्वारा बसा दिया। इस प्रकार अब धस्यार नाथद्वारा हो गया और लोग असली नाथद्वारे को भूलने लगे।
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घस्यार से पुनः नाथद्वारा आगमन
घस्यार की जलवायु अनुकूल नहीं थी। पानी में भारीपन होने से वह श्रीजी की सेवा योग्य नहीं था। अतः श्रीनाथजी को पुनः अपने मूल स्थान नाथद्वारा में प्रतिस्थापित करने का निर्णय लिया गया। तदनुसार चार वर्ष के घस्यार वास के पश्चात् श्रीनाथ जी को दल-बल सहित अनेक भक्तों के साथ वि.सं. १८६४ में हल्दीघाटी के बीहड़ रास्ते को पार कर खमनोर होते हुए नाथद्वारा आ पहुँचे।
इन पाँच वर्षो में नाथद्वारा की स्थिति जर्जर हो चुकी थी। आचार्य श्री का निवास स्थान भी भग्नानशेष रह गया।परन्तु भगवान् श्रीनाथजी का जीर्ण-शीर्ण मंदिर सभी भक्तों के लिए परम वंदनीय था। धीरे-धीरे शहर का जन-जीवन सामान्य हो गया। महाराणा भीम सिंह ने श्रीप्रभु के दर्शनार्थ आर्य तथा सालौर, घस्यार, ब्याल, चेनपुरिया, चरपोटिया, भोजपुरिया, टाँटोल, बाँसोल, होली, जीरण, देपुर, छोटा शिसोदिया, ब्राह्मणों का खेड़ा तथा मांडलगढ़ का मंदिर आदि गाँव प्रभु को समर्पित कर दिया।
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नाथद्वारा के मंदिरों की मूर्कित्तयाँ
नाथद्वारा वैष्णवों का एक प्रसिद्ध तीर्थस्थल है जहाँ के मुख्य मंदिर में श्रीनाथ (भगवान कृष्ण) की मूर्कित्त सर्पाधिक महत्वपूर्ण है। मंदिर की बनावट में कोई विशेष बात नहीं है लेकिन सिर्फ भगवान श्री कृष्ण के पवित्र समागम से यह विशेष रुप से पूजनीय हो गया है। कहा जाता है कि यह मूर्ति इशामसीह के जन्म के दो हजार वर्ष पूर्व निर्मित श्री कृष्णचंद्र आनन्दकन्द की मूर्ति है। नारायण ने श्री कृष्ण अवतार लेकर जिस आयु में जैसा श्रृंगार किया था मूर्ति को भी दिन में क्रम से वैसे ही सजाया जाता है। जैसे बालवेष, कंसवधधारी, धनुर्वाणधारी राजवेष इत्यादि।
श्रीनवनीत जी का मंदिर श्रीनाथजी के निकट ही बना हुआ है। इनका दूसरा रुप बालमुकुन्द है। इन बालक-मूर्ति के दाहिने हाथ में लड्डू रखा हुआ है। प्राचीनकाल से ही श्रीबालमुकुन्दजी महाराज गृह-देवताओं में गिने जाते हैं। एक बार श्रीवल्लभाचार्य ने स्नान करते समय एक मूर्ति पाया जो संभवतः मुस्लिम आक्रमण का परिणाम था। उन्होने इस मूर्ति को लेकर गृह-देवता के रुप में स्थापित किया। इस तरह श्रीनवनीतजी श्रीवल्लभ कुल के देवता हो गये।
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अन्नकूटोत्सव
प्रसिद्ध वैष्णव बल्लभाचार्यजी महाराज ने सात मूर्तियों को एकत्र कर महान अन्नकूट उत्सव की प्रतिष्ठा की थी। बहुत दिनों तक यह सातों मूर्तियाँ एक ही मंदिर में विराजमान थी। बाद में श्री वल्लभाचार्य के पोते महाराज गिरिधारीजी ने अपने सात पुत्रों के बीच इन सातों स्वरुपों की मूर्तियाँ बाँट दी। उन सात पुत्रों के वंशधर आज तक प्रधान पुरोहित बने हुए सात देवमूर्तियों के मंदिरों में विराजमान हैं।
नाथद्वारा में अन्नकूटोत्सव बड़ी धूमधाम के साथ मनाया जाता है। खासकर राजपूत जाति के गौरवकाल में
इसका विशेष महत्व था। राजस्थान के भिन्न-भिन्न नगरों में स्थापित भगवान् विष्णु की उपरोक्त सातो मूर्तियाँ उत्सव के आरम्भ से ही नाथद्वारे में विधिपूर्वक पूजी जाती है। उन सात मूर्तियों को सन्तुष्ट करने के लिए श्रीनाथजी के मंदिर के आंगन में अन्न-व्यंजन की राशियों के कूट लगाये जाते हैं। राजपूतों के चार प्रधान राजा मेवाड़ के राणा अरिसिंह (उरसी), मारवाड़ के राजा विजयसिंह, बीकानेर के महाराजा गजसिंह तथा किशनगढ़ के महाराजा बहादुरसिंह अपनी-अपनी श्रद्धा के अनुसार एक-एक रत्नालंकार दान करते थे।
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बनास नदी के बारे में मान्यता
नाथद्वारा के निकट प्रवाहमान बनास (बुनाश) नदी के बारे में यहाँ प्रचलित एक प्राचीन मान्यता यह है कि पूर्वकाल में जिस समय म्लेच्छों (यवनों) का इस देश में आगमन नहीं हुआ था तब इस नदी की अधिष्ठात्री देवी जल से हाथ बाहर निकालकर वहाँ के निवासियों से नारियल ग्रहण करती थी किन्तु एक दिन देवी के वैसे ही हाथ निकालने पर एक म्लेच्छ ने उन्हें नारियल के बदले मिट्टी का ढेला दे दिया तब से देवी हाथ नहीं निकालती है।
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पुरुषतार्थ श्रीनाथद्वारा की महिमा
पूर्व की तरु से पर्वतों की दीवार तथा उत्तर-पश्चिम की प्रवाहित बनास नदी के मध्य स्थित यह छोटा सा स्थान वैष्णवों के महत्वपूर्ण तीर्थों में से एक है। जब नंदराजकुमार श्रीनाथजी का मदपाद धाम में पदापंण हुआ तभी से इस धाम का नाम "नाथद्वारा' हो गया और यहाँ आनन्द और मुक्ति की पुण्यसलिला प्रवाहित होने लगी। यह स्थान मनोरम, शान्तिमय तथा समतामय है। यहाँ भगवान श्रीकृष्ण का अत्यन्त ही पवित्र मंदिर है तथा यह भारतवर्ष का प्रधान यात्रा-पीठ माना जाता है। लोगों का ऐसा विश्वास है कि घोर पापी भी यहाँ आकर आश्रय पाता है तथा पवित्र हो जाता है। राजपूतों में ऐसा विश्वास था कि घोर अपराधी भी यहाँ जाये तो राजा उसे दंड नहीं दे सकता। आशाहीन, त्यक्त, निर्धन सभी को श्रीभगवान् के चरणों में स्थान मिलता है।
देश के कई अग्रणी महापुरुषों व लेखकों ने इस स्थान की यात्रा की तथा यहाँ की महत्ता को अपने-अपने यात्रा की तथा यहाँ की महत्ता को अपने-अपने शब्दों में व्यक्त किया। गर्गाचार्य के अनुसार
जगन्नाथों रंगनाथों द्वारकानाथ एवच
बद्रीनाथ श्चतुष्कोणे भारतस्यापि वर्त्तते।
चतुणार्ं भुविनाथानां कृत्वा यात्रां नरः सुधी,
न पश्येद्देवदमनं न स यात्रा फलं लभत्।।

अर्थात जो व्यक्ति भारत के चारो कोणो पर स्थित रंगनाथ, द्वारिकानाथ तथा बद्रीनाथ की यात्रा करके भी यदि श्रीनाथद्वारा की यात्रा नहीं करता उसे यात्रा का फल नहीं मिलता है।

भगवान श्रीनाथजी का प्राकट्य





भगवान श्रीनाथजी का प्राकट्य

भगवान श्रीनाथजी का प्राकट्य :- भगवान श्रीकृष्ण ने अपने भक्तों की विनती पर आशीर्वाद दिया, समस्त दैवीय जीवों के कल्याण के लिये कलयुग में मैं ब्रजलोक में श्रीनाथजी के नाम से प्रकट होउंगा । उसी भावना को पूर्ण करने ब्रजलोक में मथुरा के निकट जतीपुरा ग्राम में श्री गोवर्धन पर्वत पर भगवान श्रीनाथजी प्रकट हुये । प्राकट्य का समय ज्यों ज्यों निकट आया श्रीनाथजी की लीलाएँ शुरु हो गई । आस पास के ब्रजवासियों की गायें घास चरने श्रीगोवेर्धन पर्वत पर जाती उन्हीं में से सद्द् पाण्डे की घूमर नाम की गाय अपना कुछ दूध श्रीनाथजी के लीला स्थल पर अर्पित कर आती । कई समय तक यह् सिलसिला चलता रहा तो ब्रजवासियों को कौतुहल जगा कि आखिर ये क्या लीला है, उन्होंने खोजबीन की, उन्हें श्रीगिरिराज पर्वत पर श्रीनाथजी की उर्ध्व वाम भुजा के दर्शन हुये। वहीं गौमाताएं अपना दूध चढा आती थी।उन्हें यह् दैवीय चमत्कार लगा और प्रभु की भविष्यवाणी सत्य प्रतीत होती नजर आयी । उन्होंने उर्ध्व भुजा की पुजा आराधना शुरु कर दी। कुछ समय उपरांत संवत् 1535 में वैशाख कृष्ण 11 को गिरिराज पर्वत पर श्रीनाथजी के मुखारविन्द का प्राकट्य हुआ और तदुपरांत सम्पूर्ण स्वरूप का प्राकट्य हुआ। ब्रजवासीगण अपनी श्रद्धानुसार सेवा आराधना करते रहे।
इधर प्रभु की ब्रजलोक में लीलायें चल रही थी, उधर श्रीमहाप्रभुवल्लभाचार्यजी संवत 1549 की फ़ाल्गुन शुक्ल 11 को झारखण्ड की यात्रा पर शुद्वाद्वैत का प्रचार कर रहे थे। श्रीनाथजी ने उन्हें स्वप्न में दर्शन दे आदेश प्रदान किया कि ब्रजलोक में मेरा प्राकट्य हो चुका है, आप यहाँ आयें और मुझे प्रतिष्ठित करें। श्रीमहाप्रभुवल्लभाचार्यजी प्रभु की लीला से पुर्व में ही अवगत हो चुके थे, वे झारखण्ड की यात्रा बीच में ही छोड मथुरा होते हुये जतीपुरा पहँचे । जतीपुरा में सददू पाण्डे एवं अन्य ब्रजवासियों ने उन्हें देवदमन के श्रीगोवर्धन पर्वत पर प्रकट होने की बात बताई । श्रीमहाप्रभुवल्लभाचार्यजी ने सब ब्रजवासियों बताया की लीला अवतार भगवान श्रीनाथजी का प्राकट्य हुआ है, इस पर सब ब्रजवासी बडे हर्षित हुये।
श्रीमहाप्रभुवल्लभाचार्यजी सभी को साथ ले श्रीगोवर्धन पर्वत पर पहँचे और श्रीनाथजी का भव्य मंदिर निर्माण कराया और ब्रजवासियों को श्रीनाथजी की सेवा आराधना की विधिवत जानकारी प्रदान कर उन्हें श्रीनाथजी की सेवा में नियुक्त किया।
मुगलों के शासन का दौर था, समय अपनी गति से चल रहा था प्रभु को कुछ और लीलाएं करनी थी। दूसरी और उस समय का मुगल सम्राट औरंगजेब हिन्दू आस्थाओं एवं मंदिरों को नष्ट करने पर आमदा था। मेवाड में प्रभु श्रीनाथजी को अपनी परम भक्त मेवाड राजघराने की राजकुमारी अजबकुँवरबाई को दिये वचन को पूरा करने पधारना था। प्रभु ने लीला रची। श्री विट्ठलनाथजी के पोत्र श्री दामोदर जी उनके काका श्री गोविन्दजी, श्री बालकृष्णजी व श्रीवल्लभजी ने औरंगजेब के अत्याचारों की बात सुन चिंतित हो श्रीनाथजी को सुरक्षित स्थान पर बिराजमान कराने का निर्णय किया। प्रभु से आज्ञा प्राप्त कर निकल पडे।
प्रभु का रथ भक्तों के साथ चल पडा, मार्ग में पडने वाली सभी रियासतों (आगरा, किशनगढ कोटा, जोधपुर आदि) के राजाओं से, इन्होने प्रभु को अपने राज्य में प्रतिष्ठित कराने का आग्रह किया, कोई भी राजा मुगल सम्राट ओरंगजेब से दुश्मनी लेने का साहस नही कर सके, सभी ने कुछ समय के लिये, स्थायी व्यवस्था होने तक गुप्त रूप से बिराजने कि विनती की, प्रभु की लीला एवं उपयुक्त समय नही आया मानकर सभी प्रभु के साथ आगे निकल पडे।
मेवाड में पधारने पर रथ का पहिया सिंहाड ग्राम (वर्तमान श्रीनाथद्वारा) में आकर धंस गया, बहुतेरे प्रयत्नों के पश्चात भी पहिया नहीं निकाला जा सका, प्रभु की ऎसी ही लीला जान और सभी प्रयत्न निश्फल मान, प्रभु को यहीं बिराजमान कराने का निश्चय किया गया तत्कालीन महाराणा श्री राजसिंह जी ने प्रभु की भव्य अगवानी कर वचन दिया कि मैं पभु को अपने राज्य में पधारता हूँ, प्रभु के स्वरूप की सुरक्षा की पूर्ण जिम्मेदारी लेता हूँ आप प्रभु को यही बिराजमान करावें संवत १७२८ फाल्गुन कृष्ण ७ को प्रभु श्रीनाथजी वर्तमान मंदिर मे पधारे एवं भव्य पाटोत्सव का मनोरथ हुआ और सिंहाड ग्राम श्रीनाथद्वारा के नाम से प्रसिद्ध हुआ तब से प्रभु श्रीनाथजी के लाखों, करोंडो भक्त प्रतिवर्ष श्रीनाथद्वारा आते हैं एवं अपने आराध्य के दर्शन पा धन्य हो जाते हैं।श्रीनाथजी के दर्शन : प्रात - १. मंगला २. श्रृंगार ३. ग्वाल ४. राजभोग सायं ५. उत्थापन ६. भोग ७. आरती ८. शयन (शयन के दर्शन आश्विन शुक्ल १० से मार्गशीर्ष शुक्ल ७ तक एवं माघ शुक्ल ५ से रामनवमी तक, शेष समय निज मंदिर के अंदर ही खुलते हैं, भक्तों के दर्शनार्थ नहीं खुलते हैं ।)

।। क्‍लीं कृष्‍णाय गोविन्‍दाय गोपीजनवल्‍लभाय नम: ।।

।। श्री कृष्‍ण शरणम् मम: ।।

गोलोक धाम में मणिरत्नों से सुशोभित श्रीगोवर्द्धन है। वहाँ गिरिराज की कंदरा में श्री ठाकुरजी गोवर्द्धनाथजी, श्रीस्वामिनीजी और ब्रज भक्तों के साथ रसमयी लीला करते है। वह नित्य लीला है। वहाँ आचार्य जी महाप्रभु श्री वल्लभाधीश श्री ठाकुरजी की सदा सर्वदा सेवा करते है। एक बार श्री ठाकुरजी ने श्री वल्लभाचार्य महाप्रभु को देवी जीवों के उद्धार के लिए धरती पर प्रकट होने की आज्ञा दी। श्री ठाकुरजी श्रीस्वामिनीजी, ब्रज भक्तो के युथों और लीला-सामग्री के साथ स्वयं श्री ब्रज में प्रकट होने का आशवासन दिया।इस आशवासन के अनुरूप विक्रम संवत् १४६६ ई. स. १४०९ की श्रावण कृष्ण तीज रविवार के दिन सूर्योदय के समय श्री गोवर्धननाथ का प्राकट्य गिरिराज गोवर्धन पर हुआ। यह वही स्वरूप था जिस स्वरूप से इन्द्र का मान-मर्दन करने के लिए भगवान्, श्रीकृष्ण ने ब्रजवासियों की पूजा स्वीकार की और अन्नकूट की सामग्री आरोगी थी।श्री गोवर्धननाथजी के सम्पूर्ण स्वरूप का प्राकट्य एक साथ नहीं हुआ था पहले वाम भुजा का प्राकट्य हुआ, फिर मुखारविन्द का और बाद में सम्पूर्ण स्वरूप का प्राकट्य हुआ।
सर्वप्रथम श्रावण शुक्ल पंचमी (नागपंचमी) सं. १४६६ के दिन जब एक ब्रजवासी अपनी खोई हुई गाय को खोजने गोवर्धन पर्वत पर गया तब उसे श्री गोवर्द्धनाथजी की ऊपर उठी हुई वाम भुजा के दर्शन हुए उसने अन्य ब्रजवासियों को बुलाकर ऊर्ध्व वाम भुजा के दर्शन करवाये। तब एक वृद्ध ब्रजवासी ने कहा की भगवान् श्रीकृष्ण ने गिरिराज गोवर्धन को बाये हाथ की अंगुली पर उठाकर इन्द्र के कोप से ब्रजवासियों, ब्रज की गौऐं और ब्रज की रक्षा की थी। तब ब्रजवासियों ने उनकी वाम भुजा का पूजन किया था। यह भगवान् श्रीकृष्ण की वही वाम भुजा है। वे प्रभु कंदरा में खड़ें है और अभी केवल वाम भुजा के दर्शन करवा रहे है। किसी को भी पर्वत खोदकर भगवान् के स्वरूप को निकालने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए। जब उनकी इच्छा होगी तभी उनके स्वरूप के दर्शन होगे। इसके बाद लगभग ६९ वर्षो तक ब्रजवासी इस ऊर्ध्व भुजा को दूध से स्नान करवाते, पूजा करते, भोग धरते और मानता करते थे। प्रतिवर्ष नागपंचमी के दिन यहां मेला लगने लगा था।
वि.स. १५३५ में वैशाख कृष्ण एकादशी को मध्यान्ह एक अलोकिक घटना घटी। गोवर्धन पर्वत के पास आन्योर गाँव के सद्दू पाण्डे की हजारों गायों में से एक गाय नंदरायजी के गौवंश की थी, जिसे धूमर कहा जाता था। वह नित्य तीसरे प्रहर उस स्थान पर पहुँच जाती थी, जहाँ श्री गोवर्धननाथजी की वाम भुजा का प्रकट्य हुआ था। वहाँ एक छेद था। उसमें वह अपने थनों से दूध की धार झराकर लौट आती थी। सदू पाण्डे को संदेह हुआ कि ग्वाला अपरान्ह में धूमर गाय का दूध दुह लेता है इसलिए यह गाय संध्या समय दूध नहीं देती है। एक दिन उसने गाय के पीछे जाकर स्थिति जाननी चाही, उसने देखा कि गाय गोवर्धन पर्वन पर एक स्थान पर जाकर खडी हो गयी और उसके थनों से दूध झरने लगा। सद्दू पाण्डे को आश्चर्य हुआ। उसके निकट जाकर देखा तो उसे श्री गोवर्धननाथजी के मुखारविन्द के दर्शन हुए इसी दिन वैशाख कृष्ण ११ को संवत् १५३५ छत्तीसगढ़ के चम्पारण्य में श्री वल्लाभाचार्य का प्राकट्य हुआ। श्री गोवर्धननाथजी ने स्वयं सद्दू पाण्डे से कहां कि-'मेरा नाम देवदमन है तथा मेरे अन्य नाम इन्द्रदमन और नागदमन भी है। उस दिन से ब्रजवासी श्री गोवर्धननाथजी को देवदमन के नाम से जानने लगे। सदू पाण्डे की पत्नी भवानी व पुत्री नरों देवदमन को नित्य धूमर गाय का दूध आरोगाने के लिए जाती थी।
वि.स. १५४९ (ई.स. १५९३) फाल्गुन शुक्ल एकादशी गुरूवार के दिन श्री गोवर्धननाथजी ने महाप्रभु श्री वल्लभाचार्यजी को झारखण्ड में आज्ञा दी-हमारा प्राकट्य गोवर्धन की कन्दरा में हुआ है। पहले वामभुजा का प्राकट्य हुआ था और फिर मुखारविन्द का। अब हमारी इच्छा पूर्ण स्वरूप का प्राकट्य करने की है। आप शीघ्र ब्रज आवें और हमारी सेवा का प्रकार प्रकट करे। यह आज्ञा सुनकर महाप्रभु श्री वल्लभाचार्य अपनी यात्रा की दिशा बदलकर ब्रज में गोवर्धन के पास आन्योर ग्राम पधारे वहाँ आप श्री सद्दू पाण्डे के घर के आगे चबूतरे पर विराजे। श्री आचार्यजी महाप्रभु के अलौकिक तेज से प्रभावित होकर सद्दू पाण्डे सपरिवार आपश्री के सेवक बने। सद्दू पाण्डे ने आपश्री को श्रीनाथजी के प्राकट्य की सारी कथा सुनाई। श्री महाप्रभुजी ने प्रातः काल श्रीनाथजी के दर्शनार्थ गोवर्धन पर पधारने का निश्चय व्यक्त किया। दूसरे दिन प्रातः काल श्री महाप्रभुजी अपने सेवको और ब्रजवासियों के साथ श्री गिरिराजजी पर श्रीनाथजी के दर्शनों के लिए चले। सर्वप्रथम आपने हरिदासवर्य गिरिराजजी को प्रभु का स्वरूप मानकर दण्डवत प्रणाम किया और उनसे आज्ञा लेकर गिरिराजजी पर धीरे-धीरे चढ़ना आरम्भ किया। जब दूर से ही सद्दू पाण्डे ने श्रीनाथजी के प्राकट्य का स्थल बतलाया तब महाप्रभुजी के नेत्रों से हर्ष के अश्रुओं की धारा बह चली। उन्हे ऐसा लग रहा था कि वर्षो से प्रभु के विरह का जो ताप था, वह अब दूर हो रहा है। उनकी पर्वत पर चढ ने की गति बढ गई। तभी वे देखते है कि सामने से मोर मुकुट पीताम्बरधारी प्रभु श्रीनाथजी आगे बढे आ रहे है। तब तो श्रीमद् वल्लभाचार्य प्रभु के निकट दौडते हुए से पहुँच गये। आज श्री वल्लभाचार्य को भू-मंडल पर अपने सर्वस्व मिल गये थे। श्री ठाकुरजी और श्री आचार्यजी दोनो ही परस्पर अलिंगन में बंध गये। इस अलौकिक झाँकी का दर्शन कर ब्रजवासी भी धन्य हो गये। आचार्य श्री महाप्रभु श्रीनाथजी के दर्शन और आलिंगन पाकर हर्ष-विभोर थे। तभी श्रीनाथजी ने आज्ञा दी-''श्री वल्लभ यहाँ हमारा मन्दिर सिद्ध करके उसमें हमें पधराओं और हमारी सेवा का प्रकार आरम्भ करवाओं''।श्री महाप्रभु जी ने हाथ जोड़कर विनती की ''प्रभु !आपकी आज्ञा शिरोधार्य है''।
श्री महाप्रभु ने अविलम्ब एक छोटा-सा घास-फूस का मन्दिर सिद्ध करवाकर ठाकुरजी श्री गोवर्धननाथजी को उसमें पधराया तथा श्री ठाकुरजी को मोरचन्द्रिका युक्त मुकुट एवं गुंजामला का श्रृंगार किया। आप श्री ने रामदास चौहान को श्रीनाथजी की सेवा करने की आज्ञा दी। उसे आश्वासन दिया कि चिन्ता मत कर स्वयं श्रीनाथजी तुम्हे सेवा प्रकार बता देंगे। बाद में श्री महाप्रभुजी की अनुमति से पूर्णमल्ल खत्री ने श्रीनाथजी का विशाल मन्दिर सिद्ध किया। तब सन् १५१९ विक्रम संवत् १५७६ में वैशाख शुक्ल तीज अक्षय तृतीया को श्रीनाथजी नये मन्दिर पधारे तथा पाटोत्सव हुआ। तब मधवेन्द्र पुरी तथा कुछ बंगाली ब्राह्मणों को श्रीनाथजी की सेवा का दायित्व सौपा गया।
कुभंनदास संगीत सेवा करने लगे तथा कृष्णदास को अधिकारी बनाया गया। बाद में श्री गुसाँईजी ने बंगाली ब्राह्मणों को सेवा से हटाकर नई व्यवस्था की जो आज तक चल रही है। जब श्रीनाथजी ब्रज से श्रीनाथद्वारा में पधारे तब वि.स. १७२८ फाल्गुन कृष्ण सप्तमी २० फरवरी सन् १६७२ ई. शनिवार को श्रीनाथजी वर्तमान निज मन्दिर में पधारे और धूमधाम से पाटोत्सव हुआ तब सिहाड ग्राम का नाम ''श्रीनाथद्वारा'' प्रसिद्ध हुआ। नाम करण-अभी तक श्रीनाथजी को ब्रजवासी देवदमन के नाम से जानते है। महाप्रभु वल्लभाचार्यजी ने आप श्री का प्रथम श्रृंगार करके जिस दिन सेवा प्रणाली व्यवस्थित की उस दिन आपका एक और नाम 'गोपालजी' रखा। इसी कारण गोवर्धन की तलहटी में स्थित वर्तमान जतीपुरा ग्राम को गोपालपुर कहा जाने लगा था। प्रभुचरण श्रीविट्ठलनाथजी ने जब बंगाली पुजारियों को हटाकर नई व्यवस्था की तब आपश्री ने प्रभु को श्री 'गोवर्द्धननाथजी' नाम दिया। माला-तिलक रक्षक श्री गोकुलनाथजी के समय भावुक भक्त आपश्री को 'श्रीनाथजी' के संक्षिप्त किन्तु भाव भरे नाम से पुकारने लगे। यह नाम श्री कोई नया नहीं था। गर्ग संहिता के गिरिराज खण्ड में श्री गोवर्धननाथ के देवदमन और श्रीनाथजी दोनो ही के नामों का उल्लेख है-'' श्रीनाथं देवदमनं वदिष्यन्ति सज्जनाः'' (७/३०/३१) इस प्रकार 'श्रीनाथजी' यह अभिधान भी बहुत प्राचीन है। 'श्री' शब्द लक्ष्मीवाचक और राधापरक है। राधाजी भगवान् की आह्लादिनी आनंददायिनी शक्ति है और 'नाथ' शब्द तो स्वामिवाचक है ही। भावुक भक्त बडे ही लाड़ से श्रीनाथजी को 'श्रीजी' या 'श्रीजी बाबा' भी कहते है।