श्रीनाथजी को अन्ततः नाथद्वारा में प्रतिस्थापित कर दिये जाने से बादशाह औरंगजेब महाराणा राजसिंहजी से चिढ़ गया तथा उसकी सेना ने मेवाड़ पर आक्रमण कर दिया लेकिन राजपूतों के शौर्य ने उसके आक्रमण का मुँहतोड़ जबाव दिया।
नाथद्वारा को मेवाड़ के विभिन्न महाराणाओं द्वारा समय-समय पर विशेष राजाश्रय मिलता रहा। उनके अगाध विश्वास ने इस नगर के विकास में योगदान दिया। राजसिंह के पुत्र जयसिंह नाथद्वारा को कामलिभावास नामक गाँव भेंट किया वहीं उनके पुत्र महाराणा अमरसिंह ने अपली ओड़न व बागोल नामक गाँव भेंट किया। इसके बाद संग्रामसिंह, प्रतापसिंह, राजसिंह (द्वितीय), अरिसिंह तथा हमीरसिंह आदि महाराणाओं ने श्रीनाथजी को समय-समय पर प्रभूत सेवाएँ समर्पित की।
गोस्वामी ति. श्री दामोदरजी महाराज के पुत्र श्री विट्ठलेशरायजी का नगर-निर्माण में विशेष योगदान रहा। उन्होने श्रीनाथजी की सेवा करने वाले जातियों को मंदिर के आस-पास की ऊँची पहाड़ियों पर बसाया। इस तरह गूर्जरपुरा, लोधाघाटी और मंदिर पिछवाड़ नामक मोहल्ले बसाये गये। धीरे-धीरे आस-पास के निवासी अपने-अपने गाँव छोड़कर यहाँ बस गये। श्री गिरधरजी महाराज ने नगर-निर्माण सम्बन्धी पेचीदगियों को दूर करने में भरपूर सहयोग दिया।
वि. सं. १८३५ में अजमेर मेरवाड़ा के मेरो ने मेवाड़ पर आक्रमण किया उसी समय तब पिण्डारियों ने नाथद्वारा में घूसकर काफी लूट-खसोट की। निरन्तर अशान्ति का सिलसिला बना हुआ था इसी बीच वि. सं. १८५८ में दौलतराव सिन्धिया से पराजित होकर जसवंतराव होल्कर मेवाड़ भूमि की तरफ आया। सिंधिया की सेनाएँ भी उसे ढूँढ़ते-ढूँढ़ते यहाँ आयी तथा नाथद्वारा का अनुपम वैभव देखकर गोस्वामी श्री गिरधर जी महाराज से तीन लाख की मांग की। गोस्वामी जी ने तुरन्त इसकी सूचना महाराणा को दी। महाराणा ने नाथद्वारा के रक्षार्थ कई सरदारों को भेजा तथा भविष्य में सुरक्षार्थ श्री नाथजी को उदयपुर लाने की आज्ञा दी। बाद में नाथद्वारा नगर में होल्कर की सेनाएँ प्रवेश कर चुकी थी। उसने पुनः नगरवासियों का लूट-खसोट कर यातनाएँ दी।
धस्यार प्रस्थान
इन परिस्थितयों में तिलकायतश्री अपने को असुरक्षित मान श्रीनाथजी एवं अन्य स्वरुप द्वय (श्री नवनीत जी तथा श्री विट्ठलनाथजी) को किसी निर्जन स्थान में ले जाने का विचार करने लगे। अंततः धस्यार को इसके लिए उपयुक्त स्थान समझा गया। यह स्थान सुन्दर पर्वतों के मण्य होने के कारण दुर्गम तथा सुरक्षित था। वहाँ नाथद्वारा के मंदिर के सदृश ही विशाल मंदिर बनवाया गया। इस प्रकार तिलकायत श्री गिरधरजी ने अपनी अद्भुत नीतिसत्ता से वहाँ दूसरा नाथद्वारा बसा दिया। इस प्रकार अब धस्यार नाथद्वारा हो गया और लोग असली नाथद्वारे को भूलने लगे।
घस्यार से पुनः नाथद्वारा आगमन
घस्यार की जलवायु अनुकूल नहीं थी। पानी में भारीपन होने से वह श्रीजी की सेवा योग्य नहीं था। अतः श्रीनाथजी को पुनः अपने मूल स्थान नाथद्वारा में प्रतिस्थापित करने का निर्णय लिया गया। तदनुसार चार वर्ष के घस्यार वास के पश्चात् श्रीनाथ जी को दल-बल सहित अनेक भक्तों के साथ वि.सं. १८६४ में हल्दीघाटी के बीहड़ रास्ते को पार कर खमनोर होते हुए नाथद्वारा आ पहुँचे।
इन पाँच वर्षो में नाथद्वारा की स्थिति जर्जर हो चुकी थी। आचार्य श्री का निवास स्थान भी भग्नानशेष रह गया।परन्तु भगवान् श्रीनाथजी का जीर्ण-शीर्ण मंदिर सभी भक्तों के लिए परम वंदनीय था। धीरे-धीरे शहर का जन-जीवन सामान्य हो गया। महाराणा भीम सिंह ने श्रीप्रभु के दर्शनार्थ आर्य तथा सालौर, घस्यार, ब्याल, चेनपुरिया, चरपोटिया, भोजपुरिया, टाँटोल, बाँसोल, होली, जीरण, देपुर, छोटा शिसोदिया, ब्राह्मणों का खेड़ा तथा मांडलगढ़ का मंदिर आदि गाँव प्रभु को समर्पित कर दिया।
नाथद्वारा के मंदिरों की मूर्कित्तयाँ
नाथद्वारा वैष्णवों का एक प्रसिद्ध तीर्थस्थल है जहाँ के मुख्य मंदिर में श्रीनाथ (भगवान कृष्ण) की मूर्कित्त सर्पाधिक महत्वपूर्ण है। मंदिर की बनावट में कोई विशेष बात नहीं है लेकिन सिर्फ भगवान श्री कृष्ण के पवित्र समागम से यह विशेष रुप से पूजनीय हो गया है। कहा जाता है कि यह मूर्ति इशामसीह के जन्म के दो हजार वर्ष पूर्व निर्मित श्री कृष्णचंद्र आनन्दकन्द की मूर्ति है। नारायण ने श्री कृष्ण अवतार लेकर जिस आयु में जैसा श्रृंगार किया था मूर्ति को भी दिन में क्रम से वैसे ही सजाया जाता है। जैसे बालवेष, कंसवधधारी, धनुर्वाणधारी राजवेष इत्यादि।
श्रीनवनीत जी का मंदिर श्रीनाथजी के निकट ही बना हुआ है। इनका दूसरा रुप बालमुकुन्द है। इन बालक-मूर्ति के दाहिने हाथ में लड्डू रखा हुआ है। प्राचीनकाल से ही श्रीबालमुकुन्दजी महाराज गृह-देवताओं में गिने जाते हैं। एक बार श्रीवल्लभाचार्य ने स्नान करते समय एक मूर्ति पाया जो संभवतः मुस्लिम आक्रमण का परिणाम था। उन्होने इस मूर्ति को लेकर गृह-देवता के रुप में स्थापित किया। इस तरह श्रीनवनीतजी श्रीवल्लभ कुल के देवता हो गये।
अन्नकूटोत्सव
प्रसिद्ध वैष्णव बल्लभाचार्यजी महाराज ने सात मूर्तियों को एकत्र कर महान अन्नकूट उत्सव की प्रतिष्ठा की थी। बहुत दिनों तक यह सातों मूर्तियाँ एक ही मंदिर में विराजमान थी। बाद में श्री वल्लभाचार्य के पोते महाराज गिरिधारीजी ने अपने सात पुत्रों के बीच इन सातों स्वरुपों की मूर्तियाँ बाँट दी। उन सात पुत्रों के वंशधर आज तक प्रधान पुरोहित बने हुए सात देवमूर्तियों के मंदिरों में विराजमान हैं।
नाथद्वारा में अन्नकूटोत्सव बड़ी धूमधाम के साथ मनाया जाता है। खासकर राजपूत जाति के गौरवकाल में
इसका विशेष महत्व था। राजस्थान के भिन्न-भिन्न नगरों में स्थापित भगवान् विष्णु की उपरोक्त सातो मूर्तियाँ उत्सव के आरम्भ से ही नाथद्वारे में विधिपूर्वक पूजी जाती है। उन सात मूर्तियों को सन्तुष्ट करने के लिए श्रीनाथजी के मंदिर के आंगन में अन्न-व्यंजन की राशियों के कूट लगाये जाते हैं। राजपूतों के चार प्रधान राजा मेवाड़ के राणा अरिसिंह (उरसी), मारवाड़ के राजा विजयसिंह, बीकानेर के महाराजा गजसिंह तथा किशनगढ़ के महाराजा बहादुरसिंह अपनी-अपनी श्रद्धा के अनुसार एक-एक रत्नालंकार दान करते थे।
बनास नदी के बारे में मान्यता
नाथद्वारा के निकट प्रवाहमान बनास (बुनाश) नदी के बारे में यहाँ प्रचलित एक प्राचीन मान्यता यह है कि पूर्वकाल में जिस समय म्लेच्छों (यवनों) का इस देश में आगमन नहीं हुआ था तब इस नदी की अधिष्ठात्री देवी जल से हाथ बाहर निकालकर वहाँ के निवासियों से नारियल ग्रहण करती थी किन्तु एक दिन देवी के वैसे ही हाथ निकालने पर एक म्लेच्छ ने उन्हें नारियल के बदले मिट्टी का ढेला दे दिया तब से देवी हाथ नहीं निकालती है।
पुरुषतार्थ श्रीनाथद्वारा की महिमा
पूर्व की तरु से पर्वतों की दीवार तथा उत्तर-पश्चिम की प्रवाहित बनास नदी के मध्य स्थित यह छोटा सा स्थान वैष्णवों के महत्वपूर्ण तीर्थों में से एक है। जब नंदराजकुमार श्रीनाथजी का मदपाद धाम में पदापंण हुआ तभी से इस धाम का नाम "नाथद्वारा' हो गया और यहाँ आनन्द और मुक्ति की पुण्यसलिला प्रवाहित होने लगी। यह स्थान मनोरम, शान्तिमय तथा समतामय है। यहाँ भगवान श्रीकृष्ण का अत्यन्त ही पवित्र मंदिर है तथा यह भारतवर्ष का प्रधान यात्रा-पीठ माना जाता है। लोगों का ऐसा विश्वास है कि घोर पापी भी यहाँ आकर आश्रय पाता है तथा पवित्र हो जाता है। राजपूतों में ऐसा विश्वास था कि घोर अपराधी भी यहाँ जाये तो राजा उसे दंड नहीं दे सकता। आशाहीन, त्यक्त, निर्धन सभी को श्रीभगवान् के चरणों में स्थान मिलता है।
देश के कई अग्रणी महापुरुषों व लेखकों ने इस स्थान की यात्रा की तथा यहाँ की महत्ता को अपने-अपने यात्रा की तथा यहाँ की महत्ता को अपने-अपने शब्दों में व्यक्त किया। गर्गाचार्य के अनुसार
जगन्नाथों रंगनाथों द्वारकानाथ एवच
बद्रीनाथ श्चतुष्कोणे भारतस्यापि वर्त्तते।
चतुणार्ं भुविनाथानां कृत्वा यात्रां नरः सुधी,
न पश्येद्देवदमनं न स यात्रा फलं लभत्।।
अर्थात जो व्यक्ति भारत के चारो कोणो पर स्थित रंगनाथ, द्वारिकानाथ तथा बद्रीनाथ की यात्रा करके भी यदि श्रीनाथद्वारा की यात्रा नहीं करता उसे यात्रा का फल नहीं मिलता है।
No comments:
Post a Comment