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Monday, February 7, 2011

श्रीमद्भगवद्गीता सातवाँ अध्याय...


श्रीमद्भगवद्गीता सातवाँ अध्याय...


श्रीभगवानुवाच
मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रयः। असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु॥७- १॥
मुझ मे लगे मन से, हे पार्थ, मेरा आश्रय लेकर योगाभ्यास करते हुऐ तुम बिना शक के
मुझे पूरी तरह कैसे जान जाओगे वह सुनो।
ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः। यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते॥७- २॥
मैं तुम्हे ज्ञान और अनुभव के बारे सब बताता हूँ, जिसे जान लेने के बाद
और कुछ भी जानने वाला बाकि नहीं रहता।
मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये। यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः॥७- ३॥
हजारों मनुष्यों में कोई ही सिद्ध होने के लिये प्रयत्न करता है। और सिद्धि के लिये
प्रयत्न करने वालों में भी कोई ही मुझे सार तक जानता है।
भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च। अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा॥७- ४॥
भूमि, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार – यह भिन्न भिन्न आठ रूपों
वाली मेरी प्रकृति है।
अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्। जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्॥७- ५॥
यह नीचे है। इससे अलग मेरी एक और प्राकृति है जो परम है – जो जीवात्मा का रूप
लेकर, हे महाबाहो, इस जगत को धारण करती है।
एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय। अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा॥७- ६॥
यह दो ही वह योनि हैं जिससे सभी जीव संभव होते हैं। मैं ही इस संपूर्ण
जगत का आरम्भ हूँ औऱ अन्त भी।
मत्तः परतरं नान्यत्किंचिदस्ति धनंजय। मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव॥७- ७॥
मुझे छोड़कर, हे धनंजय, और कुछ भी नहीं है। यह सब मुझ से वैसे पुरा हुआ है
जैसे मणियों में धागा पुरा होता है।
रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः। प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु॥७- ८॥
मैं पानी का रस हूँ, हे कौन्तेय, चन्द्र और सूर्य की रौशनी हूँ, सभी वेदों में वर्णित
ॐ हूँ, और पुरुषों का पौरुष हूँ।
पुण्यो गन्धः पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसौ। जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु॥७- ९॥
पृथवि की पुन्य सुगन्ध हूँ और अग्नि का तेज हूँ। सभी जीवों का जीवन हूँ, और तप
करने वालों का तप हूँ।
बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम्। बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्॥७- १०॥
हे पार्थ, मुझे तुम सभी जीवों का सनातन बीज जानो। बुद्धिमानों की बुद्धि मैं हूँ और
तेजस्वियों का तेज मैं हूँ।
बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम्। धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ॥७- ११॥
बलवानों का वह बल जो काम और राग मुक्त हो वह मैं हूँ। प्राणियों में वह इच्छा जो धर्म विरुद्ध न
हो वह मैं हूँ हे भारत श्रेष्ठ।
ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये। मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि॥७- १२॥
जो भी सत्तव, रजो अथवा तमो गुण से होता है उसे तुम मुझ से ही हुआ जानो, लेकिन
मैं उन में नहीं, वे मुझ में हैं।
त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः सर्वमिदं जगत्। मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम्॥७- १३॥
इन तीन गुणों के भाव से यह सारा जगत मोहित हुआ, मुझ अव्यय और परम को नहीं जानता।
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया। मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते॥७- १४॥
गुणों का रूप धारण की मेरी इस दिव्य माया को पार करना अत्यन्त कठिन है।
लेकिन जो मेरी ही शरण में आते हैं वे इस माया को पार कर जाते हैं।
न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः। माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः॥७- १५॥
बुरे कर्म करने वाले, मूर्ख, नीच लोग मेरी शरण में नहीं आते। ऍसे दुष्कृत लोग, माया द्वारा
जिनका ज्ञान छिन चुका है वे असुर भाव का आश्रय लेते हैं।
चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन। आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ॥७- १६॥
हे अर्जुन, चार प्रकार के सुकृत लोग मुझे भजते हैं। मुसीबत में जो हैं, जिज्ञासी,
धन आदि के इच्छुक, और जो ज्ञानी हैं, हे भरतर्षभ।
तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते। प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः॥७- १७॥
उनमें से ज्ञानी ही सदा अनन्य भक्तिभाव से युक्त होकर मुझे भजता हुआ सबसे उत्तम है। ज्ञानी को
मैं बहुत प्रिय हूँ और वह भी मुझे वैसे ही प्रिय है।
उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्। आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम्॥७- १८॥
यह सब ही उदार हैं, लेकिन मेरे मत में ज्ञानी तो मेरा अपना आत्म ही है। क्योंकि मेरी
भक्ति भाव से युक्त और मुझ में ही स्थित रह कर वह सबसे उत्तम गति - मुझे, प्राप्त करता है।
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते। वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः॥७- १९॥
बहुत जन्मों के अन्त में ज्ञानमंद मेरी शरण में आता है। वासुदेव ही सब कुछ हैं, इसी भाव में
स्थिर महात्मा मिल पाना अत्यन्त कठिन है।
कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः। तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया॥७- २०॥
इच्छाओं के कारण जिन का ज्ञान छिन गया है, वे अपने अपने स्वभाव के अनुसार, नीयमों का पालन करते हुऐ
अन्य देवताओं की शरण में जाते हैं।
यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति। तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम्॥७- २१॥
जो भी मनुष्य जिस जिस देवता की भक्ति और श्रद्धा से अर्चना करने की इच्छा
करता है, उसी रूप (देवता) में मैं उसे अचल श्रद्धा प्रदान करता हूँ।
स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते। लभते च ततः कामान्मयैव विहितान्हि तान्॥७- २२॥
उस देवता के लिये (मेरी ही दी) श्रद्धा से युक्त होकर वह उसकी अराधना करता है और अपनी इच्छा पूर्ती
प्राप्त करता है, जो मेरे द्वारा ही निरधारित की गयी होती है।
अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम्। देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि॥७- २३॥
अल्प बुद्धि वाले लोगों को इस प्रकार प्रप्त हुऐ यह फल अन्तशील हैं। देवताओं का यजन करने वाले
देवताओं के पास जाते हैं लेकिन मेरा भक्त मुझे ही प्राप्त करता है।
अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः। परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम्॥७- २४॥
मुझ अव्यक्त (अदृश्य) को यह अवतार लेने पर, बुद्धिहीन लोग देहधारी मानते हैं। मेरे परम
भाव को अर्थात मुझे नहीं जानते जो की अव्यय (विकार हीन) और परम उत्तम है।
नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः। मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम्॥७- २५॥
अपनी योग माया से ढका मैं सबको नहीं दिखता हूँ। इस संसार में मूर्ख मुझ अजन्मा और विकार हीन
को नहीं जानते।
वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन। भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन॥७- २६॥
हे अर्जुन, जो बीत चुके हैं, जो वर्तमान में हैं, और जो भविष्य में होंगे, उन सभी जीवों को मैं जानता हूँ, लेकिन मुझे
कोई नहीं जानता।
इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत। सर्वभूतानि संमोहं सर्गे यान्ति परन्तप॥७- २७॥
हे भारत, इच्छा और द्वेष से उठी द्वन्द्वता से मोहित हो कर, सभी जीव जन्म चक्र में फसे रहते हैं, हे परन्तप।
येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम्। ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रताः॥७- २८॥
लेकिन जिनके पापों का अन्त हो गया है, वह पुण्य कर्म करने वाले लोग द्वन्द्वता से
निर्मुक्त होकर, दृढ व्रत से मुझे भजते हैं।
जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये। ते ब्रह्म तद्विदुः कृत्स्नमध्यात्मं कर्म चाखिलम्॥७- २९॥
बुढापे और मृत्यु से छुटकारा पाने के लिये जो मेरा आश्रय लेते हैं वे उस ब्रह्म को,
सारे अध्यात्म को, और संपूर्ण कर्म को जानते हैं।
साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदुः। प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतसः॥७- ३०॥
वे सभी भूतों में, दैव में, और यज्ञ में मुझे जानते हैं। मृत्युकाल में भी इसी
बुद्धि से युक्त चित्त से वे मुझे ही जानते हैं।


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