पुष्टिमार्ग उसी की राह दिखाता है। श्री गोवर्धनधरण श्रीनाथजी की कृपा से ही जीव इस पथ पर चलता है।..
कलियुग में कर्ममार्ग, ज्ञानमार्ग और शास्त्रोक्त भक्तिमार्ग का अनुकरण करना संभव नहीं है। कलियुग में जीव के कल्याण का एकमात्र निश्चित् और सुगम उपाय भगवान् श्रीकृष्ण की भक्ति ही है। उसी से भगवान् की कृपा या प्रसन्नता रूपी फल की प्राप्ति संभव है। अतः पूर्ण पुरूषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण की भावनीय सेवा ही पुष्टिमार्गीय जीव का एकमात्र धर्म है। पुष्टिमार्ग प्रेम पंथ है। इसमे भाव की प्रधानता है, शास्त्रीय विधि-विधानों की नहीं। शुद्धप्रेम ही पुष्टिभक्ति है। भगवान् के प्रेम का द्वार सभी के लिए खुला है। इसमें किसी का भी प्रवेश वर्जित नही है। स्त्री हो चाहे पुरुष, हिन्दु हो चाहे अन्य धर्म का अनुयायी, ब्रह्मण हो या शूद्र सभी इस प्रेममार्ग मे प्रवेश पा सकते है। भगवान् श्री गोवर्धनधर (श्रीनाथजी) बायीं भुजा उठाकर भक्तों को पुकार रहे हैं, किन्तु हर व्यक्ति की प्रवृति भगवान् की ओर नहीं होती। भगवान् स्वयं ही कृपा करके जिसका वरण करते हैं, वही उनकी ओर बढ़ सकता है।भगवान् की कृपा जीव की पात्रता, उसके साधन, उसके कर्म आदि का विचार नहीं करती। यह पतितों के लिए भी महान् आश्वासन है और निःसाधनों के लिए आशा का केन्द्र भी। पुष्टिमार्ग का संदेश है कि अपने विकृत अतीत से पीड़ित रहने की कोई आवश्यकता नहीं है। पातितपावन प्रभु जिसे स्वीकार कर लेते हैं, वह उत्तम हो जाता है। साधनों के अभाव में भी हीनता का भाव उत्पन्न मत होने दो। साधनहीनता और देन्य तो प्रभु के अनुग्रह के सबसे बड़ें कारण हैं। सभी में भगवान् हैं। इसलिए सभी में कृष्ण-भावना रखते हुए सबसे प्रेम करो, किसी से घृणा मत करो।
पुष्टिमार्ग नारी की महिमा प्रकट करता है। श्रीवल्लभाचार्य का मत है कि स्त्रियों में भगवान् को देखने की विशेष दृष्ठि होती है। भगवान् भी उन पर विशेष कृपा करते हैं। पुष्टिमार्ग कृष्णप्रेममयी व्रजांगनाओं का, गोपियों का मार्ग है। गोपियाँ प्रेम की ध्वजा हैं, प्रेममार्ग की गुरू हैं। निकुंजलीला में उनका विशेषाधिकार है। पुष्टिमार्ग में नंदालय की भावना से, माता यशोदा के भाव से, बालकृष्ण की सेवा की जाती है। वात्सलय भाव सबसे निर्मल और पवित्र भाव है। बच्चों में भगवान् सहज ही दृष्ठिगोचर होते हैं। सारा विश्व भगवान् की लीला है। भगवान् स्वयं ही लील के लिये अनेक रूपों में बन गये हैं। प्रत्येक वस्तु के भोक्ता प्रभु ही हैं। हम तो उनके दास हैं। प्रभु को समर्पित करके जो प्रसाद रूप में मिला है, उसी से हमारा अधिकार है और उसी में जीवन-यापन करने में हमारी धन्यता है। हसंसार में किसी भी वस्तु के प्रति स्वामित्व भाव रखना अनुचित है, क्योकि स्वामी तो केवल भगवान् है। अतः हर वस्तु का पहले भगवान् की सेवा में विनियोग करें। श्री वल्लभाचार्य का मत है कि अंहकार चाहे धन का हो, सत्ता का हो, जाति या वर्ण का हो, विद्या का हो या किसी भी प्रकार का क्यों न हो, वह भगवान् की प्राप्ति में बाधक है। भगवान् दैन्य से प्रसन्न होते हैं। अतः हर प्रकार का अहंकार त्याज्य है। भगवान् की सेवा के लिए धन दे देने मात्र से भगवान् की सेवा नही हो जाती। उससे तो अहंकार बढ़ता है, इसलिए भगवान् की सेवा में अपना तन, मन और धन लगाना चाहिए। भगवान् का द्रव्य, देवद्रव्य या धर्म का द्रव्य अपने लिये उपयोग में लेने से मनुष्य का पतन और सर्वनाश हो जाता है।
भगवान् को या भगवत्स्वरूप भागवतजी को आजिविका का या धनसंग्रह का साधन नहीं बनाना चाहिए। गृहस्थ जीवन गरिमामय है। अपने घर में रहते हुए परिवार, समाज, राष्ट्र और मानव जाति के प्रति अपने दायित्व का निर्वाह करते हुए भी भगवान् को पाया जा सकता है। अपने घर में रहकर, अपने धर्म का पालन करते हुए परिवारजनों के साथ भगवान् की सेवा करना ही जीवन की सार्थकता है। व्यक्ति को अहंता और ममता का, मैं और मेरेपन का समिति घेरा बनाकर उसमें केन्द्रित नही हो जाना चाहिए। अहंता और ममता में घिरा हुआ व्यक्ति काल्पनिक भ्रमजाल में फँसा रहता है। इस घेरे से निकलकर सम्पूर्ण जगत् को भगवत्स्वरूप देखते हुए, भगवत्लीला का आनन्द लेते हुए, भगवत्सेवामय जीवन जीने से मनुष्य जीते-जी मुक्ति का आनंद पा सकता है। पुष्टिमार्ग की मान्यता है कि भगवत्सेवा की दृष्ठि से किया जाने वाला प्रत्येक कार्य भगवत्सेवा ही है। अहंता और ममता को दूर करके, भगवद्भाव से अपने पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय, मानवीय कर्त्तव्यों का पालन करना चाहिए। पुष्टिमार्ग के अनुसार भगवद्धर्म ही आत्मधर्म है। शेष सभी धर्म बहिरंगधर्म हैं। किन्तु जब तक देहाभिमान है, तब तक बहिरंग धर्म मुख्य होते हैं। उनके साथ ही भगवद्धर्म का निर्वाह करना चाहिए। सभी वस्तुओ के प्रति ममतारहित होकर उन्हे प्रभु को समर्पित कर प्रसाद के रूप में ग्रहण करना तथा अहंकार और फलाकांक्षा से मुक्त होकर भगवान् के लिए कर्म करना तथा भगवान् के लिए ही जीवन जीना पुष्टिमार्ग के लिए मूलमंत्र है। पुष्टिमार्ग का पहला और अन्तिम जोर भगवत्कृपा पर है। प्रभु-कृपा का निरन्तर अनुभव करना, उसी पर अटूट विश्वास रखना, प्रभु सर्व प्रकार से सर्वदा भक्त की रक्षा करेगें, यह दृढ़ विश्वास बनाये रखते हुए जीवन की हर अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थिति में विवेक और धैर्य बनाये रखना तथा अशक्य या सुशक्य, सहज या कठिनतम, हर स्थिति में प्रभु श्रीकृष्ण का ही अनन्य आश्रय रखना पुष्टिमार्गीय जीवन-प्रणाली की अनिवार्य शर्त है। १. पुष्टिमार्गीय वैष्णव किसी कामना की पूर्ति या कष्ट-निवारण के लिए प्रार्थना नही करता। प्रभु सर्वत्र हैं, हमारे अन्तर्यामी हैं, हमारे परम हितैषी हैं, सर्वसमर्थ हैं। अतः न तो हमें चिन्ता करनी चाहिए और न याचनारूप में प्रार्थना करनी चाहिए। २. वैष्णव जीवन सहज होता है। उसमें हठ या दुराग्रह का स्थान नहीं है। अतः सहज जीवन जीना चाहिए। ३. महाप्रभु श्री वल्लभाचार्य का मत है कि विद्वान् सन्मार्ग के रक्षक हैं, अतः उन्हें निर्भीक होकर अपनी बात कहनी चाहिए। समाज और शासन का भी कर्त्तव्य है कि वे विद्वानों की बात सम्मानपूर्वक सुने, उनकी रक्षा करें और उनकी आजिविका की व्यवस्था करें। ४. पुष्टिमार्ग आचरण पक्ष पर विशेष बल देता है। श्रीवल्लभाचार्य का आदेश है कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी सम्पूर्ण शक्ति से स्वधर्म का पालन करें, चाहे कैसा ही भय या प्रालोभन क्यों न हो, विधर्म से बचना चाहिए। अपनी इन्द्रियों पर नियंत्रण रखकर पूर्ण पवित्र जीवन जीना चाहिए। यह सदा ध्यान में रखें कि विषयों से आक्रान्त देह में और विषयों से आविष्ट चित्त में भगवान् नहीं विराजते हैं। ५. जीवन और जगत् की अनेकरूपता और विविधता में भगवान् ही विभिन्न नाम-रूप धारण करके लीला कर रहे हैं, अतः जीवन की विविधता और विभिन्नता को सहर्ष स्वीकार करना चाहिए, उसका आनन्द लेना चाहिए। ६. सब कुछ भगवद्रूप है, भगवान् का है और भगवान् के लिए है, इसलिए कही भी स्वामित्व की भावना न रखें। कही भी अंतरतम से निजी रूप से न उलझे और न पलायन ही करे। विश्व के रंगमंच पर भगवान् ने हमें जो रोल दिया है, उसे अपनी सम्पूर्ण योग्यता से अदा करें। ७. पुष्टिमार्ग या सेवामार्ग की शिक्षा है कि राग, भोग और श्रृंगार की भावना को भगवान् की ओर मोड़ दे, उसका उन्नयन और परिष्कार करें। अपने सम्पूर्ण भावों को, रागात्मक वृत्ति को प्रभु को समर्पित कर दें। प्रभु ही भोक्ता हैं, उन्हें समर्पित कर भगवद्प्रसाद से जीवन-यापन करें। सौन्दर्य के महासमुद्र प्रभु श्रीकृष्ण है। अपनी सौन्दर्यवृत्ति और प्रेमवृत्ति को, अपनी रागात्मक वृत्ति को प्रेम और सौन्दर्य के निधान श्रीकृष्ण को समर्पित कर दें। प्रभु कलानिधि हैं। सभी कलाएँ उन्हे समर्पित कर दें। कलाओं को भगवान् की सेवा में समर्पित करने से उनमें दिव्यता आ जाती है। सूरदास आदि महाकवियों के काव्य में इसी समर्पण की दिव्यता है। ८. भगवान् श्रीकृष्ण सदानन्द हैं, पूर्णानन्द हैं, अगणितानन्द हैं, पूर्ण पुरूषोत्तम हैं। जीव उनका अंश है। प्रभु-सेवा करते हुए प्रभुकश्पा से उसमें तिरोहित आनन्द का अविर्भाव होता है और जीव भगवद्-आनन्द से मग्न हो जाता है। यही जीवन का चरम और परम फल है। पुष्टिमार्ग उसी की राह दिखाता है। श्री गोवर्धनधरण श्रीनाथजी की कृपा से ही जीव इस पथ पर चलता है।
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