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Monday, February 7, 2011

श्रीमद्भगवद्गीता नौंवा अध्याय....


श्रीमद्भगवद्गीता नौंवा अध्याय.....


श्रीभगवानुवाच
इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे। ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्॥९- १॥
मैं तुम्हे इस परम रहस्य के बारे में बताता हूँ क्योंकि तुममें इसके प्रति कोई वैर वहीं है। इसे ज्ञान और अनुभव सहित जान लेने पर
तुम अशुभ से मुक्ति पा लोगे।
राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम्। प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम्॥९- २॥
यह विद्या सबसे श्रेष्ठ है, सबसे श्रेष्ठ रहस्य है, उत्तम से भी उत्तम और पवित्र है, सामने ही दिखने वाली है (टेढी नहीं है),
न्याय और अच्छाई से भरी है, अव्यय है और आसानी से इसका पालन किया जा सकता है।
अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य परन्तप। अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि॥९- ३॥
हे परन्तप, इस धर्म में जिन पुरुषों की श्रद्धा नहीं होती, वे मुझे प्राप्त न कर, बार बार इस
मृत्यु संसार में जन्म लेते हैं।
मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना। मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः॥९- ४॥
मैं इस संपूर्ण जगत में अव्यक्त (जो दिखाई न दे) मूर्ति रुप से विराजित हूँ। सभी जीव मुझ में ही स्थित हैं,
मैं उन में नहीं।
न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम्। भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः॥९- ५॥
लेकिन फिर भी ये जीव मुझ में स्थित नहीं हैं। देखो मेरे योग ऍश्वर्य को, इन जीवों में स्थित न होते हुये भी मैं
इन जीवों का पालन हार, और उत्पत्ति कर्ता हूँ।
यथाकाशस्थितो नित्यं वायुः सर्वत्रगो महान्। तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय॥९- ६॥
जैसे सदा हर ओर फैले हुये आकाश में वायु चलती रहती है, उसी प्रकार सभी जीव
मुझ में स्थित हैं।
सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम्। कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम्॥९- ७॥
हे कौन्तेय, सभी जीव कल्प का अन्त हो जाने पर (1000 युगों के अन्त पर) मेरी ही प्रकृति में समा जाते हैं और
फिर कल्प के आरम्भ पर मैं उनकी दोबारा रचना करता हूँ।
प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः। भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात्॥९- ८॥
इस प्रकार प्रकृति को अपने वश में कर, पुनः पुनः इस संपूर्ण जीव समूह की मैं रचना करता हूँ जो इस प्रकृति के
वश में होने के कारण वशहीन हैं।
न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनंजय। उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु॥९- ९॥
यह कर्म मुझे बांधते नहीं हैं, हे धनंजय, क्योंकि मैं इन कर्मैं को करते हुये भी
इनसे उदासीन (जिसे कोई खास मतलब न हो) और संग रहित रहता हूँ।
मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्। हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते॥९- १०॥
मेरी अध्यक्षता के नीचे यह प्रकृति इन चर और अचर (चलने वाले और न चलने वाले) जीवों को
जन्म देती है। इसी से, हे कौन्तेय, इस जगत का परिवर्तन चक्र चलता है।
अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्। परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्॥९- ११॥
इस मानुषी तन का आश्रय लेने पर (मानव रुप अवतार लेने पर), जो मूर्ख हैं वे मुझे नहीं पहचानते। मेरे परम
भाव को न जानते कि मैं इन सभी भूतों का (संसार और प्राणीयों का) महान् ईश्वर हूँ।
मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः। राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः॥९- १२॥
व्यर्थ आशाओं में बँधे, व्यर्थ कर्मों में लगे, व्यर्थ ज्ञानों से जिनका चित्त हरा जा चुका है, वे विमोहित करने वाली राक्षसी और
आसुरी प्रकृति का सहारा लेते हैं।
महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः। भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम्॥९- १३॥
लेकिन महात्मा लोग, हे पार्थ, दैवी प्रकृति का आश्रय लेकर मुझे ही अव्यय (विकार हीन) और इस संसार का आदि जान कर,
अनन्य मन से मुझे भजते हैं।
सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रताः। नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते॥९- १४॥
ऍसे भक्त सदा मेरी प्रशंसा (कीर्ति) करते हुये, मेरे सामने नतमस्तक हो और सदा भक्ति से युक्त हो
दृढ व्रत से मेरी उपासने करते हैं।
ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते। एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम्॥९- १५॥
और दूसरे कुछ लोग ज्ञान यज्ञ द्वारा मुझे उपासते हैं। अलग अलग रूपों में एक ही देखते हुये, और इन बहुत से रुपों को
ईश्वर का विश्वरूप ही देखते हुये।
अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम्। मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम्॥९- १६॥
मैं क्रतु हूँ, मैं ही यज्ञ हूँ, स्वधा मैं हूँ, मैं ही औषधी हूँ। मन्त्र मैं हूँ, मैं ही घी हूँ, मैं अग्नि हूँ और यज्ञ में
अर्पित करने का कर्म भी मैं ही हूँ।
पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः। वेद्यं पवित्रमोंकार ऋक्साम यजुरेव च॥९- १७॥
मैं इस जगत का पिता हूँ, माता भी, धाता भी और पितामहः (दादा) भी। मैं ही वेद्यं (जिसे जानना चाहिये) हूँ, पवित्र ॐ हूँ, और
ऋग, साम, और यजुर भी मैं ही हूँ।
गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत्। प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम्॥९- १८॥
मैं ही गति (परिणाम) हूँ, भर्ता (भरण पोषण करने वाला) हूँ, प्रभु (स्वामी) हूँ, साक्षी हूँ, निवास स्थान हूँ, शरण देने
वाला हूँ और सुहृद (मित्र अथवा भला चाहने वाला) हूँ। मैं ही उत्पत्ति हूँ, प्रलय हूँ, आधार (स्थान) हूँ, कोष हूँ। मैं ही
विकारहीन अव्यय बीज हूँ।
तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्णाम्युत्सृजामि च। अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन॥९- १९॥
मैं ही भूमि को (सूर्य रूप से) तपाता हूँ और मैं ही जल को सोक कर वर्षा करता हूँ। मैं अमृत भी हूँ, मृत्यु भी, हे अर्जुन,
और मैं ही सत् भी और असत् भी।
त्रैविद्या मां सोमपाः पूतपापा यज्ञैरिष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते। ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोकमश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान्॥९- २०॥
तीन वेदों (ऋग, साम, यजुर) के ज्ञाता, सोम (चन्द्र) रस का पान करने वाले, क्षीण पाप लोग स्वर्ग प्राप्ति की इच्छा से
यज्ञों द्वारा मेरा पूजन करते हैं। उन पुण्य कर्मों के फल स्वरूप वे देवताओं के राजा इन्द्र के लोक को प्राप्त कर, देवताओं के दिव्य
भोगों का भोग करते हैं।
ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति। एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना गतागतं कामकामा लभन्ते॥९- २१॥
वे उस विशाल स्वर्ग लोक को भोगने के कारण क्षीण पुण्य होने पर फिर से मृत्यु लोक पहुँचते हैं। इस प्रकार
कामी (इच्छाओं से भरे) लोग, तीन शीखाओं वाले धर्म (तीन वेदों) का पालन कर, अपनी इच्छाओं को प्राप्त कर बार बार
आते जाते हैं।
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते। तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥९- २२॥
किसी और का चिन्तन न कर, अनन्य चित्त से जो जन मेरी उपासना करते हैं, उन नित्य अभियुक्त (सदा मेरी भक्ति से युक्त)
लोगों को मैं योग और क्षेम (जो नहीं है उसकी प्राप्ति और जो है उसकी रक्षा - लाभ की प्राप्ति और अलाभ से रक्षा) प्रदान करता हूँ।
येऽप्यन्यदेवताभक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः। तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम्॥९- २३॥
जो (अन्य देवताओं के) भक्त अन्य देवताओं का श्रद्धा से पूजन करते हैं, वे भी, हे कौन्तेय,
मेरा ही पूजन करते हैं लेकिन अविधि पूर्ण ढँग से।
अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च। न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते॥९- २४॥
मैं ही सभी यज्ञों का भोक्ता (भोगने वाला) और प्रभु हूँ। वे मुझे सार तक नहीं जानते, इसी लिये
वे गिर पड़ते हैं।
यान्ति देवव्रता देवान्पितॄन्यान्ति पितृव्रताः। भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्॥९- २५॥
देवताओं (के अर्चन) का व्रत रखने वाले देवताओं के पास जाते हैं, पितृ पूजन वाले पितरों को प्राप्त करते हैं,
जीवों का पूजन करने वाले जीवों को प्राप्त करते हैं, और मेरी भक्ति करने वाले मुझे ही प्राप्त करते हैं।
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति। तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः॥९- २६॥
मेरा भक्त शुद्ध मन से मुझे जो भी पत्ता, फूल, फल अथवा जल अर्पित करता है, उस भक्ति भरे मन से अर्पित की वस्तु को
मैं भोगता (स्विकार करता) हूँ।
यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्। यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्॥९- २७॥
हे कौन्तेय, तुम जो भी करते हो, जो भी खाते हो, जो भी यज्ञ करते हो, जो भी दान करते हो, जो भी तप करते हो,
वह सब मुझे ही अर्पण कर दो।
शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः। संन्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि॥९- २८॥
इस प्रकार शुभ और अशुभ फलों से और कर्म बन्धन से मुक्ति पा कर,
सन्यास (त्याग) और योग युक्त आत्मा द्वारा विमुक्त हो तुम मुझे प्राप्त कर लोगे।
समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः। ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्॥९- २९॥
मेरे लिये सभी जीव एक से हैं - न मुझे किसी से द्वेष है और न ही कोई प्रिय है। लेकिन जो
भक्ति भाव से मुझे भजते हैं वे मुझ में हैं और मैं उन में हुँ।
अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्। साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः॥९- ३०॥
यदि बहुत दुराचारी व्यक्ति भी अनन्य भाव से मुझे भजता है तो उसे साधु पुरूष ही समझना चाहिये
क्योंकि उसने उत्तम निर्णय कर लिया है।
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति। कौन्तेय प्रति जानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति॥९- ३१॥
वह जल्द ही धर्मात्मा (सदाचार करने वाला) बन शाश्वत शान्ति को प्राप्त कर लेता है। कौन्तेय, तुम एकदम जानो की
मेरे भक्त का कभी नाश नहीं होता।
मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः। स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्॥९- ३२॥
हे पार्थ, मेरा ही आश्रय लेकर वे लोग जो पाप योनियों से उत्पन्न हुये हैं, और स्त्रियाँ, वैश्य और शूद्र भी परम गति को
प्राप्त कर लेते हैं।
किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा। अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम्॥९- ३३॥
फिर पुण्य और भक्तिमान ब्राह्मण और राज (क्षत्रिय) ऋषियों की तो बात ही क्या है। इसलिये, इस
अनित्य (अन्तशील) और असुखी लोक में जन्म लेने पर मेरी ही भक्ति करो।
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु। मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः॥९- ३४॥
मुझी में अपने मन को लगाओ, मेरे भक्त बनो, मेरा ही पूजन करो, मेरे ही सामने नत् मस्तक हो। इस प्रकार
युक्त रहते हुये, मेरे ही ओर लगे हुये तुम मुझे ही प्राप्त करोगे।


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