मेरी भवबाधा हरौ राधा नागर सोय
यह सुखद संयोग ही है कि भाद्रपद के कृष्णपक्ष की अष्टमी को श्रीकृष्ण का जन्म हुआ एवं इसी मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी को राधा का प्रादुर्भाव हुआ। ब्रह्मवैवर्तपुराण के अनुसार राधा गोलोकवासिनीथीं पर सुदामा के श्राप के कारण उन्हें इस धरा पर वृषभानु-सुताके रूप में आना पडा था। व्रज के वृषभानुके यहां जन्म-धारण की बात को आर्ष ग्रन्थों ने भी स्वीकारा है।
वृषभानुसुताकान्ता शान्तिदानपरायणा।कामा कलावतीकन्या तीर्थपूतासनातनी॥
राधा का प्राचीनतम उल्लेख गाथा सप्तशती एवं पंचतंत्र में उपलब्ध है। पाश्चात्य वैदिक विद्वान जे गोंद ने राधा को लक्ष्मी का वाचक एवं समृद्धि तथा सफलता से संबद्ध माना है। उनकी यह मान्यता रमा एवं राधा शब्दों की व्युत्पत्ति से भी सिद्ध होती है। राध्धातु से राधा तथा रम् धातु से रमा की उत्पत्ति हुई है, दोनों पर्यायवाची हैं। अब रमा (लक्ष्मी) विष्णु की शक्ति हैं, तो राधा विष्णु-अवतार श्रीकृष्ण की, अत:राधा को तो आह्लादकारिणीहोने के साथ-साथ समृद्धि एवं सफलता की प्रदायिकाहोना ही है। देवी भागवत एवं ब्रह्मवैवर्तपुराण के अनुसार राधा के वृन्दा आदि सोलह नाम हैं। कृष्णप्रियाहोने के साथ-साथ विष्णु भक्ति होने की बात भी निर्विवाद है। एक आर्ष ग्रन्थ के अनुसार वह कृष्ण के प्राणों से भी प्यारी होने के अतिरिक्त, विष्णु-प्रसूता हैं, साक्षात् विष्णु-माया हैं तथा सर्वदासत्य-स्वरूपा एवं सनातन हैं-
कृष्णप्राणाधिकादेवी महाविष्णुप्रसूरपि।
सर्वदाविष्णु माया चसत्यसत्यासनातनी॥
राधा और कृष्ण में वस्तुत:अभेद है। दोनो एक ही हैं। नारद पंचरात्रके अन्तर्गत ज्ञानामृतसार के अनुसार भी एक ही शक्ति के दो रूप हो गए हैं-राधा और कृष्ण। चैतन्य महाप्रभु ने श्रीकृष्ण-भक्ति के प्रचार-प्रसार में अप्रतिम योगदान दिया पर चैतन्य सम्प्रदाय में आरम्भ से ही नारद पंचरात्रकी अवधारणा ही प्रचलित है। यह सम्प्रदाय भी राधा और कृष्ण में भिन्नता नहीं देखता। राधा की प्रसिद्ध सखी है ललिता जो राधाकृष्ण के मिलन का, व्रज में उपक्रम करती रहती थी। ललिता को इसी के फलस्वरूप वैष्णव सम्प्रदाय में बहुत महत्व मिला है। वृन्दावन में राधा दामोदर नाम से एक प्रसिद्ध मंदिर है। इसमें श्रीकृष्ण की बाई तरफ राधा विराजती हैं तो दाई तरफ ललिता। इस मंदिर की विशेषता है कि जो इसकी चार परिक्रमाएंकर लेता है, उसे गिरिराज (गोवर्द्धन) की परिक्रमा का पुण्य प्राप्त हो जाता है। गिरिराज की परिक्रमा बडी एवं समय-साध्य है। यह राधा एवं ललिता के साख्यका ही प्रभाव है कि छोटी परिक्रमा से ही बडी परिक्रमा का फल प्राप्त हो जाता है। गोवर्द्धन-परिक्रमा पथ में ही पडता है प्रसिद्ध राधा-कुंड। इसकी भी परिक्रमा इसी क्रम में कर ली जाती है। ऐसी मान्यता है कि राधाकुंडको स्वयं कृष्ण ने अपनी प्राणप्रियाकी प्यास बुझाने हेतु अपनी वंशी से ही खोद दिया था। इसकी परिक्रमा सद्य:फलदायीहै। व्रज में कृष्ण की नहीं राधा की ही प्रधानताहै। लोग परस्पर अभिवादन के लिए राधे! राधे! का ही उच्चारण करते हैं। रिक्शा वाले, तांगेवाले राधे! राधे! कह कर ही पैदल लोगों से मार्ग लेते हैं। वृन्दावन में यह उक्ति प्रसिद्ध है-
वृन्दावन की कुंज गलीनका भेद न जाने कोय।डाल-डाल और पात-पात से राधे! राधे! होय॥
राधा को महत्व संस्कृत-काव्यकारों ने ही नहीं व्रजभाषाके कवियों ने भी भरपूर दिया। कृष्ण की बाल-लीला के गायक सूरदासने भी राधा के महत्व को रेखांकित किया है। सूरसागरके अनुसार-
सोरहसहस पीर तन। राधा जीव सब देह॥
सोलह हजार श्रीकृष्ण-प्रेम-पीडित गोपियां मात्र देह हैं, उनकी एक ही आत्मा है-राधा।
अधिसंख्य कवियों ने कृष्ण की प्रेरणा और आह्लादिनीशक्ति के रूप में राधा को देखा है। राधा को श्रीकृष्ण ने आपने आरंभिक प्रेम के अतिरिक्त क्या दिया? पर श्रीकृष्ण-हृदय में विराजमान यह राधा ही थी, जिसने वसुदेवनंदनको साक्षात् भगवान बना दिया। प्रसिद्ध व्रजभाषाकवि विहारी ने अपनी भव-बाधा के निवारण के लिए कृष्ण को नहीं राधा को पुकारा एवं श्रीकृष्ण की सुन्दर छवि का मूल राधा के प्रभाव को ही माना-
मेरी भवबाधाहरौराधा नागर सोय।
जा तन की झाईपडैश्याम हरित दुतिहोय।।
यों तो राधा की पूजा-उपासना (चित्र की अथवा मूर्ति की) ही सर्वफलदायिनीहै-
कृपयतियदि राधा बाधित शेष बाधा
किमपरमवाशिष्टंपुष्टिमर्यादयोर्ये।
यदि राधा कृपा करें तो सारी बाधाएं नि:शेष हो जाती हैं। कुछ प्राप्त करना बचता नहीं, वही पालन करती हैं, वही मर्यादा प्रदान कराती हैं। वृहन्नारदीयपुराण के अनुसार जो राधाष्टमी-व्रतरखता है उसे इस लोक में तो सब कुछ मिलता ही है, निधनोपरान्तवह स्वर्ग जाकर राधा के परिकरोंके मध्य निवास करता है।
♥║⋱.•♥•..श्री कृष्ण शरणम् ममः.•♥•..⋰║♥
ReplyDelete.⋰ ♥║⋱.•♥•.श्री राधे !!.,•♥•.⋰║♥