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Monday, February 7, 2011

श्रीमद्भगवद्गीता पाँचवां अध्याय...


श्रीमद्भगवद्गीता पाँचवां अध्याय...


अर्जुन उवाच
संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि। यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम्॥५- १॥
हे कृष्ण, आप कर्मों के त्याग की प्रशंसा कर रहे हैं और फिर
योग द्वारा कर्मों को करने की भी। इन दोनों में से जो ऐक मेरे
लिये ज्यादा अच्छा है वही आप निश्चित कर के मुझे कहिये॥

श्रीभगवानुवाच
  

संन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ। तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते॥५- २॥
संन्यास और कर्म योग, ये दोनो ही श्रेय हैं, परम की प्राप्ति कराने
वाले हैं। लेकिन कर्मों से संन्यास की जगह, योग द्वारा कर्मों का
करना अच्छा है॥
ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति। निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते॥५- ३॥
उसे तुम सदा संन्यासी ही जानो जो न घृणा करता है और न
इच्छा करता है। हे महाबाहो, द्विन्दता से मुक्त व्यक्ति आसानी से
ही बंधन से मुक्त हो जाता है॥
सांख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः। एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्॥५- ४॥
संन्यास अथवा सांख्य को और कर्म योग को बालक ही भिन्न भिन्न
देखते हैं, ज्ञानमंद नहीं। किसी भी एक में ही स्थित मनुष्य दोनो के ही
फलों को समान रूप से पाता है॥
यत्सांख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते। एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स: पश्यति॥५- ५॥
सांख्य से जो स्थान प्राप्त होता है, वही स्थान योग से भी प्राप्त होता है।
जो सांख्य और कर्म योग को एक ही देखता है, वही वास्तव में देखता है॥
संन्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः। योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति॥५- ६॥
संन्यास अथवा त्याग, हे महाबाहो, कर्म योग के बिना प्राप्त करना कठिन है।
लेकिन योग से युक्त मुनि कुछ ही समय मे ब्रह्म को प्राप्त कर लेते है॥
योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः। सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते॥५- ७॥
योग से युक्त हुआ, शुद्ध आत्मा वाला, सवयंम और अपनी इन्द्रियों पर
जीत पाया हुआ, सभी जगह और सभी जीवों मे एक ही परमात्मा को देखता
हुआ, ऍसा मुनि कर्म करते हुऐ भी लिपता नहीं है॥
नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्। पश्यञ्श्रृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपञ्श्वसन्॥५- ८॥ प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि। इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्॥५- ९॥
सार को जानने वाला यही मानता है कि वो कुछ नहीं कर रहा।
देखते हुऐ, सुनते हुऐ, छूते हुऐ, सूँघते हुऐ, खाते हुऐ, चलते फिरते हुऐ, सोते हुऐ,
साँस लेते हुऐ, बोलते हुऐ, छोड़ते या पकड़े हुऐ, यहाँ तक कि आँखें खोलते या बंद करते हुऐ,
अर्थात कुछ भी करते हुऐ, वो इसी भावना से युक्त रहता है कि वो कुछ नहीं कर रहा।
वो यही धारण किये रहता है कि इन्द्रियाँ अपने विषयों के साथ वर्त रही हैं॥
ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः। लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा॥५- १०॥
कर्मों को ब्रह्म के हवाले कर, संग को त्याग कर जो कार्य करता है,
वो पाप मे नहीं लिपता, जैसे कमल का पत्ता पानी में भी गीला नहीं होता॥
कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि। योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वात्मशुद्धये॥५- ११॥
योगी, आत्मशुद्धि के लिये, केवल शरीर, मन, बुद्धि और इन्द्रियों
से कर्म करते हैं, संग को त्याग कर॥
युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्। अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते॥५- १२॥
कर्म के फल का त्याग करने की भावना से युक्त होकर, योगी परम
शान्ति पाता है। लेकिन जो ऍसे युक्त नहीं है, इच्छा पूर्ति के लिये
कर्म के फल से जुड़े होने के कारण वो बँध जाता है॥
सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी। नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन्॥५- १३॥
सभी कर्मों को मन से त्याग कर, देही इस नौं दरवाजों के
देश मतलब इस शरीर में सुख से बसती है। न वो कुछ करती है
और न करवाती है॥
न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः। न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते॥५- १४॥
प्रभु, न तो कर्ता होने कि भावना की, और न कर्म की रचना करते हैं।
न ही वे कर्म का फल से संयोग कराते हैं। यह सब तो सवयंम के कारण
ही होता है।
नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः। अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः॥५- १५॥
न भगवान किसी के पाप को ग्रहण करते हैं और न किसी के अच्छे
कार्य को। ज्ञान को अज्ञान ढक लेता है, इसिलिये जीव मोहित हो जाते हैं॥
ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः। तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम्॥५- १६॥
जिन के आत्म मे स्थित अज्ञान को ज्ञान ने नष्ट कर दिया है,
वह ज्ञान, सूर्य की तरह, सब प्रकाशित कर देता है॥
तद्बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणाः। गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः॥५- १७॥
ज्ञान द्वारा उनके सभी पाप धुले हुऐ, उसी ज्ञान मे बुद्धि लगाये,
उसी मे आत्मा को लगाये, उसी मे श्रद्धा रखते हुऐ, और उसी में
डूबे हुऐ, वे ऍसा स्थान प्राप्त करते हैं जिस से फिर लौट कर
नहीं आते॥
विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि। शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः॥५- १८॥
ज्ञानमंद व्यक्ति एक विद्या विनय संपन्न ब्राह्मण को, गाय को, हाथी को, कुत्ते को
और एक नीच व्यक्ति को, इन सभी को समान दृष्टि से देखता है।
इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः। निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः॥५- १९॥
जिनका मन समता में स्थित है वे यहीं इस जन्म मृत्यु को जीत लेते हैं। क्योंकि ब्रह्म
निर्दोष है और समता पूर्ण है, इसलिये वे ब्रह्म में ही स्थित हैं।
न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम्। स्थिरबुद्धिरसंमूढो ब्रह्मविद्ब्रह्मणि स्थितः॥५- २०॥
न प्रिय लगने वाला प्राप्त कर वे प्रसन्न होते हैं, और न अप्रिय लगने वाला प्राप्त करने पर
व्यथित होते हैं। स्थिर बुद्धि वाले, मूर्खता से परे, ब्रह्म को जानने वाले, एसे लोग ब्रह्म में ही
स्थित हैं।
बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत् सुखम्। स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते॥५- २१॥
बाहरी स्पर्शों से न जुड़ी आत्मा, अपने आप में ही सुख पाती है। एसी, ब्रह्म योग से युक्त,
आत्मा, कभी न अन्त होने वाले निरन्तर सुख का आनन्द लेती है।
ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते। आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः॥५- २२॥
बाहरी स्पर्श से उत्तपन्न भोग तो दुख का ही घर हैं। शुरू और अन्त
हो जाने वाले ऍसे भोग, हे कौन्तेय, उनमें बुद्धिमान लोग रमा नहीं करते।
शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात्। कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः॥५- २३॥
यहाँ इस शरीर को त्यागने से पहले ही जो काम और क्रोध से उत्तपन्न वेगों
को सहन कर पाले में सफल हो पाये, ऍसा युक्त नर सुखी है।
योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव यः। स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति॥५- २४॥
जिसकी अन्तर आत्मा सुखी है, अन्तर आत्मा में ही जो तुष्ट है, और जिसका अन्त करण प्रकाशमयी है,
ऍसा योगी ब्रह्म निर्वाण प्राप्त कर, ब्रह्म में ही समा जाता है।
लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः। छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः॥५- २५॥
ॠषी जिनके पाप क्षीण हो चुके हैं, जिनकी द्विन्द्वता छिन्न हो चुकी है,
जो संवयम की ही तरह सभी जीवों के हित में रमे हैं, वो ब्रह्म निर्वाण प्राप्त करते हैं।
कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम्। अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम्॥५- २६॥
काम और क्रोध को त्यागे, साधना करते हुऐ, अपने चित को नियमित किये,
आत्मा का ज्ञान जिनहें हो चुका है, वे यहाँ होते हुऐ भी ब्रह्म निर्वाण में ही
स्थित हैं।
स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः। प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ॥५- २७॥ यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः। विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः॥५- २८॥
बाहरी स्पर्शों को बाहर कर, अपनी दृष्टि को अन्दर की ओर भ्रुवों के
मध्य में लगाये, प्राण और अपान का नासिकाओं में एक सा बहाव कर,
इन्द्रियों, मन और बुद्धि को नियमित कर, ऍसा मुनि जो मोक्ष प्राप्ति में ही लगा हुआ है,
इच्छा, भय और क्रोध से मुक्त, वह सदा ही मुक्त है।
भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्। सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति॥५- २९॥
मुझे ही सभी यज्ञों और तपों का भोक्ता, सभी लोकों का महान ईश्वर,
और सभी जीवों का सुहृद जान कर वह शान्ति को प्राप्त करता है।


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