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Monday, February 7, 2011

श्रीनाथजी निकुंज के द्वार पर स्थित भगवान् श्रीकृष्ण का साक्षात् स्वरूप है।

shrinathji swaroop's bhavna 

श्रीनाथजी निकुंज के द्वार पर स्थित भगवान् श्रीकृष्ण का साक्षात् स्वरूप है। आप अपना वाम (बायाँ) श्रीहस्त ऊपर उठाकर अपने भक्तों को अपने पास बुला रहे है। मानों आप श्री कह रहे है। - ''मेरे परम प्रिय! हजारों वर्षो से तुम मुझसे बिछुड़ गये हों। मुझे तुम्हारे बिना सुहाता नहीं है। आओ मेरे निकट आओं और लीला का रस लो। ''प्रभु वाम अंग पुष्टि रूप है। वाम श्रीहस्त उठाकर भक्तों को पुकारने का तात्पर्य है कि प्रभु अपने पुष्टि भक्तों की पात्रता, योग्यता-अयोग्यता का विचार नहीं करते और न उनसे भगवत्प्राप्ति के शास्त्रों में कहे गये साधनों की अपेक्षा ही करते है। वे तो निःसाधन जनो पर कृपा कर उन्हे टेर रहे है। श्रीहस्त ऊँचा उठाकर यह भी संकेत कर रहे है कि जिस लील-रस का पान करने के लिए वे भक्तों को आमंत्रित कर रहे है, वह सांसारिक विषयों के लौकिक आनन्द और ब्रह्मानन्द से ऊपर उठाकर भक्त को भजनानन्द में मग्न करना चाहते है।परम प्रभु श्रीनाथजी का स्वरूप दिव्य सौन्दर्य का भंडार और माधुर्य की निधि है। मधुराधिपती श्रीनाथजी का सब कुछ मधुर ही मधुर है। अपने सौन्दर्य एवं माधुर्य से भक्तों को वे ऐसा आकर्षित कर लेते हैं कि भक्त प्रपंच को भूलकर देह-गेह-संबंधीजन-जगत् सभी को भुलाकर प्रभु में ही रम जाता है, उन्ही में पूरी तरह निरूद्ध हो जाता है। यही तो हैं प्रभु का भक्तों के मन को अपनी मुट्ठी बाँधना। वास्तव में प्रभु अपने भक्तों के मन को मुट्ठी में केद नहीं करते वे तो प्रभु-प्रेम से भरे भक्त-मन रूपी बहुमूल्य रत्नों को अपनी मुट्ठी में सहेज कर रखते है। इसी कारण श्रीनाथजी दक्षिण (दाहिने) श्रीहस्त की मुट्ठी बाँधकर अपनी कटि पर रखकर निश्चिन्त खडे़ है। दाहिना श्रीहस्त प्रभु की अनुकूलता का द्योतक है। यह प्रभु की चातुरी श्रीनाथजी के स्वरूप में प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होती है। प्रभु श्रीनाथजी नृत्य की मुद्रा में खडे है। यह आत्मस्वरूप गोपियों के साथ प्रभु के आत्मरमण की, रासलीला की भावनीय मुद्रा है। रासरस ही परम रस है, परम फल है। प्रभु भक्तों को वही देना चाहते है।

पुष्टिमार्ग के सर्वस्व प्रभु श्रीनाथजी के स्वरूप का वर्णन 'अणुभाष्य -प्रकाश-रश्मि' में किया गया हैं-

'उक्षिप्तहस्तपुरूषो भक्तमाकारयत्युत'

दक्षिणेन करेणासौ मुष्ठीकृत्य मनांसिनः ।

वाम कर समुद्धृत्य निहनुते पश्य चातुरीम्‌॥

गो. श्री द्वारकेशजी ने इसी भाव का शब्दांकन एक पद में सुन्दर ढंग से किया हैः-

देक्ष्यो री मै श्याम स्वरूप।

वाम भुजा ऊँचे कर गिरिधर,

दक्षिण कर कटि धरत अनूप।

मुष्टिका बाँध अंगुष्ट दिखावत,

सन्मुख दृष्टि सुहाई।

चरण कमल युगल सम धरके,

कुंज द्वार मन लाई।

अतिरहस्य निकुंज की लीला,

हृदय स्मरण कीजै।

'द्वारकेश' मन-वचन-अगोचर,

चरण-कमल चित दीजै॥

श्रीनाथजी के मस्तक पर जूडा है, मानों श्री स्वामिनीजी ने प्रभु के केश सँवार कर जूडें के रूप में बाँध दिये है। कर्ण और नासिका में माता यशोदा के द्वारा कर्ण-छेदन-संस्कार के समय करवाये गये छेद हैं। आप श्रीकंठ में एक पतली सी माला 'कंठसिरी' धारण किए हुए है। कटि पर प्रभु ने 'तनिया' (छोटा वस्त्र) धारण कर रखा है। घुटने से नीचे तक लटकने वाली 'तनमाला' भी प्रभु ने धारण कर रखी है। आपके श्रीहस्त में कड़े है, जिन्हे मानों श्रीस्वामिनीजी ने प्रेमपूर्वक पहनाया है। निकुंजनायक श्री नाथजी का यह स्वरूप किशोरावस्था का है। प्रभु श्री कृष्ण मूलतः श्यामवर्ण है। श्रृंगार रस का वर्ण श्याम ही है। प्रभु श्रीनाथजी तो श्रृंगार रस, परम प्रेम रूप है। वही मानों उनके स्वरूप में उमडा पड़ रहा है। अतः आपश्री का श्यामवर्ण होना स्वभाविक है किन्तु श्रीनाथजी के स्वरूप में एक विशेषता यह है कि उनके स्वरूप में भक्तों के प्रति जो अनुराग उमड़ता है इसलिए उनकी श्यामता मे अनुराग की लालिमा भी झलकती है। इसी कारण श्रीनाथजी का स्वरूप लालिमायुक्त श्यामवर्ण का है। प्रभु की दृष्टि सम्मुख और किचिंत नीचे की ओर है क्योंकि वे शरणागत भक्तो पर स्नेहमयी कृपापूर्ण दृष्टि डाल रहे है। प्रभु श्रीनाथजी की यह अनुग्रहयुक्त दृष्टि ही तो पुष्टिभक्तों का सर्वस्व है।

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